नई दिल्ली(देसराग)। उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनावी तस्वीर साफ हो गई है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में मिथक तोड़कर सरकार की वापसी कराने में कामयाब हुई भाजपा साल 2017 वाला प्रदर्शन तो नहीं दोहरा पाई, लेकिन उसकी यह जीत उस प्रदर्शन से कम भी नहीं आंकी जा रही है। इस चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर अपने प्रदर्शन को बेहतर करने में असफल रही, तो समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के अथक प्रयासों को उनके अपने सियासी साझीदारों ने ही सियासी धोखे का तड़का लगाकर सत्ता के सिंहसान से दूर कर दिया। चुनाव परिणाम कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ ही भाजपा के लिए भी सबक हैं। भाजपा के लिए इसलिए, क्योंकि वह अपने पिछले प्रदर्शन को नहीं दोहरा सकी। सत्ता तंत्र के भरपूर दुरुपयोग के बावजूद भाजपा पिछले ऊंचाइयों तक नहीं पहुंच पाई। इस लिहाज से उत्तर प्रदेश में यह भाजपा की बड़ी हार है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का संगठन पूरी तरह खत्म हो चुका है, लेकिन उसके पास चुनाव से पहले मौका था, वह अपने संगठन को मजबूत करती, लेकिन पार्टी के नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी अपने वजूद को बचाने के लिए जब तक उत्तर प्रदेश में अपना चेहरा दिखाते रहे। जनता के बीच लगातार संपर्क और उसकी आवाज को उठाने के लिए संगठन की जरूरत होती है, जो कि कांग्रेस के पास नहीं था। ऐसे में भाजपा की कांग्रेस मुक्त भारत के नेरेटिव ने भी कांग्रेस की लुटिया डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उत्तर प्रदेश में पहले ही दिन से तय हो गया था कि मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच रहेगा, इस मुकाबले के लिए अखिलेश यादव ने काफी मेहनत भी की, लेकिन वह मतदाताओं का भरोसा जीतने के बावजूद अपने ही सियासी भागीदारों के धोखे की वजह से सत्ता से दूर रह गए। फिर चाहें, वह पश्चिम उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी का जाट वोट रहा हो, या स्वामी प्रसाद मार्य और ओमप्रकाश राजभर का जातीय वोट सभी ने अखिलेश का यादव-मुस्लिम वोट तो हासिल किया, लेकिन उनकी जातियों का वोट अखिलेश के उम्मीदवारों को नहीं मिला। योगी सरकार के खिलाफ जबरदस्त एंटी इनकंबेंसी के बावजूद योगी का सत्ता में दोबारा आना यही बताता है कि भाजपा के पास बेहतर चुनाव प्रबंधन था और उसने इसके जरिए अपने टारगेट को हिट किया। हमेशा की तरह चुनावी गुणा गणित और जातीय समीकरण भी चले, पुरानी समीकरण बदले और नए समीकरण बने भी। यादव, मुस्लिम, जाट, ओबीसी सहित अन्य जातियां किसके पक्ष में कितनी बंटी यह भी साफ हो गया है। यह तय है कि “लाभार्थी” वोट बैंक को भाजपा अपने खेमे में लामबंद करने में सफल रही।
यह नई किस्म का वोट बैंक है, जिसे भाजपा शासित राज्यों में पिछले पांच-सात सालों से तैयार किया जा रहा है। मुफ्त राशन, पीएम आवास, मजदूरी कार्ड और बीपीएल कार्ड सहित तमाम सहूलियतों के जरिए भाजपा ने एक ऐसा बड़ा वर्ग तैयार किया है जिसका लाभ उसे इस चुनाव में मिला। हालांकि बनी और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए कांग्रेस सरकारों में भी योजनाएं चलाई जा रही थीं लेकिन यह पहली बार हुआ है जब भाजपा ने इसका राजनीतिक इस्तेमाल का चुनावी फायदा उठाया है। नैतिक रूप से इसे सही नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन चुनाव जीतने के लिए भाजपा वह सब करने को तैयार है जो अनैतिक है और लोकतंत्र के मापदंडों से बाहर है।
अब बात समाजवादी पार्टी की। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने इस चुनाव में काफी मेहनत की और चुनाव को अपनी तरफ मोड़ने की पूरी कोशिश भी की। इसमें उन्हें सफलता भी मिली, लेकिन इतनी नहीं जितनी सत्ता तक पहुंचने के लिए जरूरी थी। उनकी चुनावी सभाओं में, रोड शो में जबरदस्त भीड़ उमड़ी, लेकिन यह भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हो सकी। अच्छी बात यह रही कि अखिलेश ने इस चुनाव में परिवारवाद को सपा पर हावी नहीं होने दिया। भाजपा से उन्हें यह सबक लेने की जरूरत है कि चुनाव की तैयारी पहले दिन से की जाती है। उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था, बेरोजगारी, महिला अत्याचार और किसानों से जुड़े तमाम ऐसे मुद्दे थे, जिन पर समाजवादी पार्टी को जनता के बीच लगातार पहुंचना था, लेकिन में ऐसा नहीं कर पाए।
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