विकल्प की खोज को लेकर कांग्रेस में चल रही कवायद
प्रदीप भटनागर
भोपाल(देसराग)। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के बड़े क्षत्रप रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी को अलविदा कहने और भारतीय जनता पार्टी की सियासत में एक मुकाम हासिल करने के बाद प्रदेश और खासकर ग्वालियर-चम्बल एवं मालवांचल में कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा जिस तरह चरमराया है, उसकी भरपाई के लिए मध्य प्रदेश कांग्रेस की तमाम कवायदें परवान चढ़ती दिखाई नहीं दे रही हैं। लेकिन प्रदेश में जो सियासी हालात बनते-बिगड़ते दिख रहे हैं, उन्हें देखते हुए ऐसा बिलकुल नही लगता कि निकट भविष्य में भी कांग्रेस की सिंधिया के विकल्प की खोज किसी परिणाम तक पहुंच पाएगी।
चालू है जताने-दिखाने का खेल?
हालांकि कांग्रेस संगठन के वह क्षत्रप जो कहीं न कहीं सिंधिया को पार्टी छोड़ने के लिए बाध्य करने के लिए जिम्मेदार हैं, अब भी यह जताने और दिखाने का असफल प्रयास कर रहे हैं कि कांग्रेस बड़ा वटवृक्ष है और इसकी किसी एक शाख के टूटने का कांग्रेस की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा है। परन्तु यह भी कटु सत्य है कि कांग्रेस आलाकमान ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस की हालत बूढ़े बैल की भांति बना दी है। जिससे उस खेत में खाद बीज डालकर ऊर्जावान, संस्कारित और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की फसल खड़ा करने की अपेक्षा की जा रही है। जिसमें मट्ठा डालने का पाप खुद कांग्रेस आलाकमान की अनदेखी के चलते इन्हीं क्षत्रपों ने किया है। हम यहां इस बहस में नहीं पड़ना चाहते कि कांग्रेस आलाकमान ने सिंधिया के साथ पार्टी में रहते ऐसा क्या किया जो सिंधिया जैसे धीर-वीर-गम्भीर व्यक्तित्व वाले नेता को इतना बड़ा कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा, या यूं भी कह सकते हैं कि “कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी, वर्ना यूं कोई बेवफा नहीं होता।” अर्थात इस बारे में प्रदेश के मतदाता साल 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद घटित घटनाक्रमों को अभी भूले नहीं है, इसलिए सीधे-सीधे हम मूल विषय पर ही बात करते हैं।
सत्ता की पीड़ा?
ग्वालियर-चम्बल अंचल में कांग्रेस की हालत इन दिनों उस घायल की तरह है, जो 15 साल बाद हाथ आई सत्ता के जाने की पीड़ा न तो जता पा रही है और न ही इस सत्य को आत्मसात कर पा रही है कि प्रदेश में उसकी सरकार पार्टी के बड़े क्षत्रपों के पुत्र मोह के चलते गई है। कांग्रेस आलाकमान मध्यप्रदेश में कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व से यही अपेक्षा कर रहा है कि आसन्न विधानसभा चुनाव में बहुमत का आंकड़ा हासिल कर पुनः सत्ता में वापसी करे। करना भी चाहिए, क्योंकि सिंधिया के कांग्रेस को अलविदा कहने से पहले कांग्रेस के इन क्षत्रपों ने अपने आलाकमान को सीना पीट-पीटकर प्रदेश कांग्रेस का जो राजनीतिक परिदृश्य दिखाया और भरोसा दिलाया था कि “एक सिंधिया के जाने का प्रदेश कांग्रेस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।” इसके बाद पार्टी आलाकमान को उनसे ऐसी ही अपेक्षा रखनी भी चाहिए।
कौन बनेगा सिंधिया का विकल्प?
संगठनात्मक दृष्टि से कांग्रेस को पुनर्जीवित करने अथवा सिंधिया का विकल्प खड़ा करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ के कंधों पर प्रदेश कांग्रेस मुखिया होने के नाते बड़ी जिम्मेदारी है और इसका निर्वहन वह पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की मदद से करने का प्रयास भी शुरू कर चुके हैं। अर्थात मध्यप्रदेश कांग्रेस को एक ऐसे ऊर्जावान सिपाही की तलाश है, जो सिंधिया के रिक्त स्थान की पूर्ति कर सके। यहां एकबात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। मैंने कांग्रेस को “सिपाही” की तलाश शब्द का प्रयोग इसलिए किया है कि कांग्रेस को “महाराज और सेनापति” की जरुरत तो है नहीं, क्योंकि पहले से “राजा और सेनापति” को लेकर ही सारा खेल खेला जा रहा है। बात सिंधिया के विकल्प की कर रहे हैं, तो सिंधिया के विकल्प के तौर पर आने वाले कुछ दशकों में कांग्रेस किसी ऐसे चेहरे को खड़ा करने में लाचार दिखाई दे रही है। जिसके पीछे की मुख्य वजह क्षत्रपों का वह अहंकार जिसके रहते कांग्रेस मध्य प्रदेश की राजनीति के इस चौराहे पर खड़ी है। अन्यथा कांग्रेस में जब-जब ग्वालियर-चम्बल की राजनीति में किसी चेहरे ने अपनी जगह बनाई है, कभी जातीय व्यवस्था, तो कभी गुटीय समीकरणों के चलते ऐसे चेहरे राजनीतिक पटल से विलुप्त होते चले गए। सामने रहे, तो सिर्फ वह जो अपने पूर्वजों की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं या पूर्वज अपने उत्तराधिकारी का राज्याभिषेक अपने प्रभाव में रहते कराने की हड़बड़ी में दिखाई दे रहे हैं।
भाजपा और कांग्रेस में है अन्तर?
हालांकि कांग्रेस में भाजपा जैसी संगठनात्मक व्यवस्थाओं का अभाव है। भाजपा में संस्कारित और अनुशासित कार्यकर्ताओं की एक ऐसी दीवार खड़ी की जाती है, जो किसी भी विपत्ति में बिना लोभ लालसा के खड़ा रहता है। इसका ताजा उदाहरण अभी-अभी मिल भी चुका है। जब प्रदेश से लेकर दिल्ली तक बैठे कांग्रेस के क्षत्रपों और प्रदेश की तत्कालीन कमलनाथ सरकार के दबाव में नौकरशाहों ने नाथ सरकार को बचाने के लिए भाजपा विधायकों को डिगाने के लिए हर वह जतन किए जिसे राजनीति की भाषा में हम दुराभावपूर्ण कार्यवाही की पराकाष्ठा ही कह सकते हैं। परन्तु इस घड़ी में भाजपा विधायकों ने जो एकजुटता दिखाई, वह कांग्रेस को आइना दिखाने के लिए काफी है।
डाक्टर गोविंद सिंह पर रुकी तलाश?
खैर हम यहां भाजपा को लेकर बहस नहीं, बल्कि सिंधिया के विकल्प की खोज को लेकर कांग्रेस में चल रही कवायद की पर चर्चा कर रहे हैं। तो कांग्रेस की तलाश वर्तमान परिस्थितियों में एकमात्र विकल्प भिण्ड जिले की लहार विधानसभा सीट से विधायक और कमलनाथ सरकार में मंत्री रहे डॉ.गोविंद सिंह पर जाकर ठहर जाती है। हालांकि खुद डाक्टर सिंह पिछले दिनों आने वाली पीढ़ी के लिए राजनीति के दरवाजे खोलने की बात कहते हुए अगला चुनाव न लड़ने का ऐलान कर चुके हैं। सिंधिया के विकल्प के अभावों से जूझते कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व ने जो तात्कालिक विकल्प खोजा है, उसके मुख्य परिदृश्य में राजा यानि दिग्विजय सिंह ही कमान संभालेंगे। बीते कुछ दिनों यह कांग्रेस के अन्दर गाहै-बगाहै यह चर्चा की जाती रही है कि यही वह सही समय है, जब डॉ.गोविंद सिंह को विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका सौंपकर साल 2023 के विधान सभा चुनाव से पहले ग्वालियर-चम्बल की सियासत को एक संदेश देना चाहिए। इसके पीछे की वजह यह बताई जा रही कि साल 2018 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के लिए सत्ता का दरवाजा ग्वालियर-चम्बल अंचल ने ही खोला था और अब डाक्टर गोविन्द सिंह के सहारे कांग्रेस एक बार फिर साल 2018 की पुनरावृत्ति कर सकती है।
तो क्या “नाथ” को “गोविन्द” पर भरोसा नहीं?
ग्वालियर-चम्बल की सियासत में सिंधिया की कमी को दूर करने के लिए कांग्रेस के पास कोई चमत्कारी चेहरा नहीं हैए इस बात से पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ भली भांति परिचित हैं। शायद यही वजह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद भी वह इस इलाके की कमान पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के खास सिपहसलार डाक्टर गोविन्द सिंह के हवाले करने का अंतिम फैसला लेने से हिचक रहे है। हालांकि यहां की सियासत में कमलनाथ जातीय समीकरण की संभावनाओं को भी टटोल रहे हैं और यदि अपने इस प्रयास में उन्हें सफलता मिलती है तो संभावना बलवती हो रही है कि वह इस अंचल में किसी ब्राम्हण चेहरे को आगे कर साल 2023 के रण में उतर सकते हैं। यह चेहरा पूर्व मंत्री चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी भी हो सकता है। तब वह इस अंचल में कांग्रेस की नैया पार लगाने के लिए चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी के साथ पूर्व मंत्री डाक्टर गोविन्द सिंह के क्षत्रिय-ब्राम्हण गठजोड़ बनाकर जातीय जमीन साधने का दांव खेल सकते हैं।
नेतृत्व का संकट जस का तस?
हालांकि कांग्रेस का यह विकल्प उन हताश और निराश कार्यकर्ताओं को टूटने से रोकने के लिए दी गई फौरी राहत की तरह देखा जा रहा है। क्योंकि घूम फिर कर बात नेतृत्व स्वीकारने पर आकर ठहर जाती है। कांग्रेस प्रदेश में सिंधिया के समर्थक कार्यकर्ताओं को पार्टी न छोड़ने के लिए मना सकती है, वह इसलिए कि वह भाजपा में नहीं जाना चाहते। उन्हें सरकार आने पर सियासी नियुक्ति देने का प्रलोभन दे सकती है, परन्तु स्थानीय राजनीति में उन पर लगा सिंधिया समर्थक का “टेग मार्क” उनकी आगे की राजनीतिक प्रगति में बाधा बना ही रहेगा। अतः वह सिंधिया समर्थक अभी “वेट एण्ड वाच” की स्थिति में हैं और पूरा समय लेकर किसी नतीजे पर पहुंचाना चाहते हैं। तो आने वाले समय में कांग्रेस की परेशानी समाप्त या कम होंगी ऐसे संकेत नहीं दिख रहे हैं।
खतरा अभी टला नहीं है?
कांग्रेस के कुछ क्षत्रप यह मानकर चल रहे हैँ कि सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने से उनका संकट टल गया है। प्रदेश की राजनीति में अब उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं रहा। यह उनकी आने वाले खतरे को लेकर वह घबराहट है, जिसकी आहट उन्हें सुनाई तो दे रही है। क्योंकि जिस तरह की राजनीतिक हवाएं मध्य प्रदेश की राजनीति में चल रही हैं, वह कांग्रेस में आने वाले बड़े तूफ़ान का संकेत दे रहे हैं। फिलहाल यह अभी अटकलें हैं, जल्द मध्य प्रदेश की राजनीति में नये घटनाचक्र देखने को मिलेंगे।