पुस्तक समीक्षा
“नेहरू-गांधी युगीन राजनीति के अंतिम योद्धा अर्जुन सिंह” नामक पुस्तक के लेखक श्री सोमेश्वर सिंह पेशे से पत्रकार,स्वतंत्र लेखक एवं वामपंथी विचार धारा से जुड़े व्यक्ति हैं । प्रस्तुत पुस्तक वस्तुतः यह बताने का स्तुत्य प्रयास है कि स्व. अर्जुन सिंह, ने विरासत से प्राप्त सामंतशाही एवं कलंकित राजनीतिक वातावरण से भरे जीवन तथा नवनिर्माण के लिये कृतसंकल्पित विचारधारा के दुष्कर घाटियों से गुजरते हुए शून्य से शिखर तक कि यात्रा कैसे तय की। अर्जुन सिंह के द्वारा इस महायात्रा के विविध पड़ावों में आयी बाधाओं से महाभारत के विशिष्ट पात्र अर्जुन कि ही भांति सफलतापूर्वक कैसे पार पाया गया जबकि इस सम्पूर्ण यात्रा क्रम में अर्जुन सिंह देश, कांग्रेस पार्टी एवं गांधी परिवार के प्रति सम्पूर्ण निष्ठा को धारण किये अपने सारथी व संरक्षक ‘कृष्ण’ भी स्वयं बने रहें हैं।
पुस्तक का बाह्य कलेवर ही प्रतिपाद्य के परिचय को स्पष्ट करने में सक्षम है। अर्जुन सिंह कि गांधी टोपी पहनी तस्वीर का भाव पुस्तक एवं पात्र कि दार्शनिकता का गंभीर आभास देने में सफल है। लेखक नें ‘लेखकीय आभार’के दौरान इस तथ्य को इन शब्दों के साथ स्पष्ट भी कर दिया है कि “मेरे विचार से पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर अर्जुन सिंह की गांधी टोपी के पृष्ठभूमि में एक संदेश था। भारत और कांग्रेस का भविष्य था। नेहरू-गांधी परंपरा का पथ था। जिससे कांग्रेस पार्टी का विचलन हो गया था। कांग्रेस पार्टी को मुख्य राष्ट्रीय धारा में लाने के लिए ही अर्जुन सिंह ने गांधी टोपी पहनी थी । जिसे दक्षिण पंथी प्रतिक्रियावादी ताकतों के दबाव में प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने उछाल दिया था।“
पुस्तक के प्रारम्भ में ही लेखक द्वारा महानायक अर्जुन सिंह के हस्तलिखित पत्र को संलग्न किया गया है जो वास्तव में इस पुस्तक रूपी ‘तख्ते-ताऊस’ में जड़े ‘कोहिनूर’ कि तरह है। जिसके बारे में टिप्पणी करते हुए राजेन्द्र भदौरिया ने इसे अर्जुन सिंह की अंतिम इच्छा पत्र या मृत्यु शैया पर लेटे व्यक्ति कि सच स्वीकारोक्ति कि संज्ञा दी है। वास्तव में यह पत्र जिसका शीर्षक है “मेरे राम रहीम और ईशा तुम कहाँ हो” इस पुस्तक के पात्र की अंतरात्मा में रची बसी व वर्तमान परिदृश्य से ओझल, दुर्लभ होती जा रही शुद्ध भारतीय विशिष्टताओं का गहन दर्शन है। इस एक पत्र को पढ़कर भी अर्जुन सिंह कि आत्मिक शुद्धता व भारतीयता कि प्रति उनके दृढ़ आग्रह को बखूबी समझा जा सकता है।
पुस्तक में कुल तीन खंड है। प्रथम खंड “जो जाना और समझा: लेखकीय” लेखक की अर्जुन सिंह के संबंध में स्वयं कि खोज यात्रा है; जो एतिहासिक पृष्ठभूमि के ठोस धरातल से गुजरते हुए नायक के महानायक बनने तक कि विविध यात्रा पड़ावो का सूक्ष्मता से अध्ययन व विवेचना करती हुई, क्रमबधता के साथ अपनी पूर्णता कि ओर पहुँचती है। यद्यपि इस खंड कि गंभीरता व रोचकता को पढ़कर ही जाना व समझा जा सकता है किन्तु कुछ मुख्य विशेषताओं का जिक्र समीक्षा धर्म के अनुसार करना आवश्यक है। जैसे- सामंती कुल में जन्मे बालक अर्जुन सिंह के मन में कर उगाही के लिए नीम के पेंड पर बांध कर पिटते किसान को देख कर सामंतवादी व्यवस्था के प्रति जीवन पर्यंन्त तक के लिए वितृष्णा के भाव का उदय होना । वास्तव में इसी वितृष्णा एवं दया के मिले- जुले भावों नें उन्हे आंगे चलकर शोषितों,वंचितों की हितों की रक्षा व सुरक्षा के लिये क्रांतिकारी सुधारों को करने की प्रेरणा प्रदान की। जिसकी परिणति उनके कार्यों जैसे- भूमिहीनों,वंचितों को पट्टे का वितरण,तेंदू पत्ता बोनस, एवं एकबत्ती कनेक्शन सुलभ कराये जानें में स्पष्टता:परिलक्षित होती है। पैतृकता से प्राप्त विरोधियों द्वारा सप्रयास कलंकित बनाई हुई राजनीति से अर्जुन सिंह का स्वाभिमान के साथ ऊपर उठ कर पंडित नेहरू के हाथ से ही कांग्रेस कि सदस्यता स्वीकार करना पुस्तक के पात्र का महानायकत्व के ओर दृढ़ता से बढ़ते कदमों की कहानी बयान करता है। पुस्तक के इस भाग में, लेखक द्वारा अर्जुन सिंह की तमाम व्यक्तिगत विशेषताओं के साथ-साथ, देश की अखंडता के लिए पंजाब समस्या के समाधान व समाज के सर्वहारा वर्ग के समुचित विकास तथा देश में उनके द्वारा प्रारम्भ किए गए शिक्षा, कला व संस्कृति के क्षेत्र में मूल्यवान कार्यों का लेखा-जोखा गंभीरता के साथ प्रस्तुत किया गया है। कांग्रेस एवं गांधी परिवार के प्रति असीम प्रतिबध्द्ता इत्यादि जैसे अन्य कई विविध एवं अनछुए रह गए पक्षों को लेखक द्वारा पुस्तक के इस खंड में सहेजने का किया गया प्रयास, रोचक, तार्किक एवं सराहनीय है । कांग्रेस पार्टी कि वर्तमान में जारी दुर्दशा, देश के सांप्रदायिक महौल एवं भारतीय जनता पार्टी द्वारा देश में जारी वर्तमान एकांगी शासन के लिए जिम्मेदार कारणों के रूप में लेखक ने यह सिद्ध करने के पक्ष में पर्याप्त तर्क दिये हैं कि इसके लिए कांग्रेस दल एवं उसके तत्समय नेतृत्व को अर्जुन सिंह द्वारा समय-समय पर दी गई चेतावनियों कि अनदेखी-अनसुनी जिम्मेदार हैं। इसी क्रम में लेखक ने बिना किसी लाग लपेट के अर्जुन सिंह के साथ उनकी योग्यताओं के अनुरूप न्याय न कर पाने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी, पी.वी.नरसिम्हाराव तथा कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के साथ व्यक्तिगत व पारिवारिक जीवन में अवांक्षित तथा स्वार्थपूर्ण हस्तक्षेप के लिए उनकी पुत्री श्रीमती वीणा सिंह को भी कटघरे में खड़ा किया है। अर्जुन सिंह कि कांग्रेस पार्टी व नेतृत्व के प्रति निष्ठा पर प्रकाश डालते हुए लेखक द्वारा पुस्तक में कई जगह पर खुलासे किये गये हैं। ऐसे ही एक अवसर पर लिखा गया है कि मध्यप्रदेश में संविद सरकार के गठन एवं चुरहट लाटरी कांड से थोपी गई विषमताओं के समय अर्जुन सिंह के पास पर्याप्त कारण व अवसर थे जब वे दल के प्रति, प्रतिबद्धता को त्याग कर सत्ता सुख भोग सकते थे। किन्तु उनके द्वारा ऐसा नहीं करने के पीछे उनकी आत्मा में रची बसी राजनीतिक शुद्धता एवं गांधी परिवार के प्रति हृदय में विद्यमान आस्था थी। यद्यपि अर्जुन सिंह द्वारा सदैव प्रदर्शित इस आस्था व योग्यता के निराशाजनक प्रतिफल के बारे में इस खण्ड का चरमोत्कर्ष लेखक द्वारा इन शब्दो में बयान किया गया है- “कांग्रेस के इतिहास में यह भी एक नज़ीर है कि जिस व्यक्ति ने नेहरू गांधी परिवार के प्रति समर्पित भाव से अपना जीवन तिरोहित कर दिया उसी कांग्रेस पार्टी व परिवार ने अर्जुन सिंह के साथ न्याय नहीं किया।“
द्वितीय खंड “आंखन देखी: संस्मरण” वस्तुतः लेखक कि अर्जुन सिंह के स्थानीय राजनीतिक व सामाजिक जीवन के प्रति समग्रता के साथ समानांतर यात्रा करते हुए अनुभव कर लिखे गए संस्मरणों का संग्रह है। जिसमें गाहे-बगाहे लेखक के निजी प्रसंगों, स्मृतियों को भी सहजता के साथ स्थान मिल गया है। यद्यपि कहीं-कहीं पर ऐसा प्रतीत होता है कि इस खंड मे आकर पुस्तक अपनी मूल उद्भावना से भटक गई है। पर गंभीरता पूर्वक मनन करने पर यह प्रतीत होता है कि इन घटनाओ व प्रसंगो का पुस्तक में समावेश, अर्जुन सिंह एवं उनसे जुड़े लोगों के सरल एवं पवित्र भावनाओ तथा समर्पण के प्रकाट्य के लिए आवश्यक था। जिसकी वजह से पुस्तक,उसके पात्र तथा पाठकों को वृहद आयाम सहजता से सुलभ हो जाते हैं। इस खंड में उल्लेखित दबंग “विधायक जगबा देवी” सुखई कोरी, “जनसेवा का केंद्र सी-19” तथा “होली में हँसी ठिठोली” के साथ लेखक का स्वयं अर्जुन सिंह के खिलाफ विधान सभा चुनाव लड़ने के प्रसंग जहां एक ओर भावनाओं को तरल कर देते हैं वहीं “विंध्य में कांग्रेस को स्थापित करने का श्रेय” तथा “राजीव गांधी कि पुण्यतिथि पर” जैसे खोजी संस्मरण लेखक व पुस्तक के प्रतिपाद्य को अलंकृत करने में सफल रहें हैं। प्रसंगवश, पुस्तक के महानायक अर्जुन सिंह पर लेखक द्वारा कहे गये इन शब्दो मे इस खंड कि गंभीरता एवं समीक्षा को सरलता से समझाया जा सकता है- “राजनीति गणित नही बीज गणित है और इस सूत्र को अर्जुन सिंह बखूबी समझते थे। अन्यथा हिंदुस्तान कि इतनी सारी रियासतों में रीवा स्टेट के एक जागीरदार के बेटे अर्जुन सिंह भारतीय राजनीति में ना छा जाते और ना ही इतने दीर्घकाल तक भारतीय राजनीति कि दिशा और दशा को प्रभावित करते।“
पुस्तक के तृतीय खंड “जाकी रही भावना जैसी: साभार” वास्तव में इस पुस्तक का चरमोत्कर्ष है, जहाँ पर अर्जुन सिंह के व्यक्तिगत व राजनीतिक मूल्यों पर आध्यात्मिक, बौद्धिक एवं राजनीतिक जगत के उनके करीबियों ने बारीक व वैविध्यता से परिपूर्ण विश्लेषणात्मक नज़र डाली है। इस स्थान पर आकार यह पुस्तक अर्जुन सिंह के तमाम उन अनछूए आयामों का कोना-कोना झांक आती है जहाँ तक इसके पहले विरले व पात्र व्यक्ति ही पहुँच पाये थे। वरिष्ठ पत्रकार व लेखक ललित सुरजन द्वारा लिखित संस्मरण “जनतांत्रिक राजनीति के प्रखर प्रवक्ता” समग्रता के साथ अर्जुन सिंह के राजनीतिक,कूटनीतिक एवं प्रशासनिक क्षमताओं पर प्रकाश डालता है। वहीं अर्जुन के साथ ताउम्र छाया कि भांति साथ रहे उनके सलाहकार एवं व्यक्तिगत सचिव मोहम्म्द युनुस जी का आलेख “दो दिवंगत नेताओं के दुर्लभ रिश्ते” मध्यप्रदेश से संबन्धित तत्समय के दो राजनीतिक धुरंधरों अर्जुन सिंह एवं माधवराव सिंधिया जी के गुंफित आपसी संबंधो के उतार चढ़ाव एवं अंत में परस्पर सम्मान भरे संबंधो के रहस्यों को खोलने में पूर्णतया सफल रहा है। इस खंड में अन्य कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों के संस्मरण,आलेख अपनी विषय वस्तु कि उपादेयता सिद्ध करने में सफल रहे हैं तथा इन सब में नवीन उद्भावनाएं,प्रसंग व घटनाएँ सुंदर व सरल ढंग से सहेजी गई हैं। जिनसे परिचित होने के लिये इस पुस्तक को पढ़ना ही श्रेयस्कर होगा।
पुस्तक में लेखक ने अर्जुन सिंह एवं उनसे जुड़े तमाम अन्य घटनाओं एवं व्यक्तियों के संबंध मे कुछ नवीन रहस्यों पर से पर्दा उठाने का भी कौतूहल भरा सफल उपक्रम किया है। जैसे- आम जन मानस के बीच प्रचलित मान्यता से अलग यह बताना कि राव शिवबहादुर सिंह के विरुद्ध रिश्वत कांड उनके राजनीतिक मित्रों किन्तु अंदर से विरोधियों के द्वारा उनके राजनीतिक जीवन का अंत करने के लिये रचा गया कुचक्र था।श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा आपातकाल कि घोषणा लोकतन्त्र के विरुद्ध नहीं वरन उसकी रक्षा के लिये थी। क्योंकि उनके द्वारा यदि उस समय आपातकाल कि घोषणा न कि जाती तो लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को गैर लोकतान्त्रिक तरीके से हटा दिये जाने कि पूरी तैयारी कि जा चुकी थी। एक अन्य जगह पर मिजोरम शांति समझौते पर अर्जुन सिंह कि महती भूमिका के लिये उनकी श्री ललडेंगा से जेल में जाकर मुलाक़ात करने के तुरंत बाद हुए समझौते का भी जिक्र किया गया है। इसी तरह अयोध्या में राम मंदिर का ताला राजीव गांधी के निर्देश में खोले जाने की आम मान्यता के उलट पुस्तक में साक्ष्यों के साथ इसे दक्षिणपंथियों का दुष्प्रचार बताया गया है। इसी क्रम में छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. अजीत जोगी का राजेन्द्र सिंह भदौरिया से यह रहस्योद्घाटन करना कि पंजाब का राज्यपाल बनने कि योजना स्वयं अर्जुन सिंह कि राजनीति एवं कूटनीति का हिस्सा थी यह एक ऐसा रहस्योद्घाटन है जिसकी संपूर्णता से परिचित होने के लिये पुस्तक को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
इस पुस्तक कि कई पंक्तियाँ पठन,मनन के दौरान मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं। उदाहरण स्वरूप महाराजा मार्तंड सिंह द्वारा अर्जुन सिंह को संविद सरकार में शामिल होने के सुझाव के प्रत्युत्तर में अर्जुन सिंह का यह कथन “ आपका मुझ पर बहुत उपकार है, मैं विधान सभा कि सदस्यता से इस्तीफा दे दूंगा, परंतु कांग्रेस पार्टी के साथ विश्वासघात नहीं करूंगा।“ एक जगह लेखक का स्वयं के बारे में यह कहना कि – ‘हारना ही मेरी किस्मत है । जीतने वाले तो कुछ और तरह के लोग होते हैं। बावजूद इसके भी मुझे इन हारे हुए विजेताओं के बीच सीना तान कर खड़े होने का साहस मिला है। यही मेरी ताकत है।‘ लेखक का यह कथन भी हृदय को छूता है कि-‘पहली बार मुझे एहसास हुआ कि राजनीति में जय-पराजय से ज्यादा राजनेताओं का धैर्य,संयम और सहनशीलता ही उन्हे महान बनाती है।‘
इस पुस्तक के नकारात्मक पहलू पर कुछ कहना हो तो यह कहा जा सकता है कि पुस्तक कई जगह अपने मूल विषय वस्तु से बाहर जाकर प्रसंगो, घटनाओं इत्यादि पर केन्द्रित हो जाती है; यद्यपि ऐसे प्रसंग पुस्तक को नीरस बनाने के बजाय उसे रोचक ही बनाते हैं। हो सकता है कि ऐसा लेखक के द्वारा पाठकों को बांध कर रखने के लिये सप्रयास किया गया हो। व्यक्तिगत तौर पर मेरा यह मानना है कि खंड “जाकी रही भावना जैसी: साभार” पर अजय सिंह राहुल भैया तथा स्व. इंद्रजीत पटेल के या उनकी तरफ से कमलेश्वर पटेल के संस्मरणों को भी पुस्तक मे स्थान दिया जाना चाहिए था । यह प्रयास सोने में सुहागा जैसी बात होती, क्योंकि विंध्य या प्रदेश स्तर कि अर्जुन सिंह से जुड़ी कि कोई भी बात इन दोनों शख़्सियतों के विचारों के बगैर एक रिक्तता छोड़ जाती है।
पुस्तक के प्रथम व द्वितीय खंड में प्रयुक्त भाषा शैली लेखक की अपनी स्वयं की है जिसमें सरलता,भावप्रवणता एवं यत्र-तत्र बिखरा देशीपन पुस्तक की बोधगम्यता को बढ़ाने वाला है। एक बात जो यहाँ समीक्षा में कहने लायक है वह यह है कि लेखक द्वारा पुस्तक कि भाषा व शैली को परमार्जित करने के बजाय उसे नैसर्गिक बने रहने दिया गया है जो स्थानीय पाठकों के अनुकूल है। लेखक द्वारा लिखित आलेखों में अखबारी भाषा का प्रभाव स्पष्टता:दिखता है जो लेखक के मूलत:पत्रकार होने कि वजह से स्वाभाविक है।
अर्जुन सिंह के राजनीतिक जीवन से शिक्षा लेने को उत्सुक व उनके सम्पूर्ण कृतित्व पर दिलचस्पी रखने वाली लोगों को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। यद्यपि यह पुस्तक अर्जुन सिंह पर लिखा गया कोई प्रामाणिक ग्रंथ नहीं है, किन्तु उन पर लिखी गई कई पुस्तकों के बीच इसकी अपनी गंभीर विशिष्टता अवश्य सिद्ध होती है। लेखक ने इस पुस्तक को लिखे जाने के उद्देश्यों के विषय पर स्वयं कहा है कि-“कुवंर साहब के आशीर्वाद से कई बच्चे आज दिल्ली,मुंबई,चेन्नई में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं कल वे डाक्टर, इंजीनीयर, वैज्ञानिक बनेगे और फिर पूछेंगे कि कुवंर साहब और राहुल भैया ने हम लोगो के लिये क्या किया है? यह सब इतिहास कि बातें हो जाएंगी। यह सब लिखने का मेरा मकसद यही है कि पीढ़ियाँ जाने की देश, प्रदेश के साथ-साथ सीधी जिले को इस मुकाम तक किसने और कैसे पहूँचाया है ?”
सारांशतः यह पुस्तक स्व. अर्जुन सिंह के विशद कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर केन्द्रित है। जिसकी उपादेयता, राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के साथ राजनीति सीखने, समझने के इच्छुक लोगों तथा स्व.अर्जुन सिंह के बारे में बारीकी के साथ जानने को उत्सुक जिज्ञासुओं,विद्यार्थियों यहाँ तक की शोधार्थियों के लिये पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराने के सामर्थ में खरी उतरती है।
अनिल सिंह गहरवार‘अकिंचन’
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