सोमेश्वर सिंह
रंगमंच हो या राजनीति, कला हो या साहित्य उसमें असहिष्णुता नहीं होनी चाहिए। जब कोई मनुष्य किसी कला, साहित्य ,संस्कृत के ज्ञान को आत्मसात कर लेता है तब वह सरल, सहज ,विनम्र, गंभीर उदार, मानवीय और संवेदनशील हो जाता है। इसीलिए कहा गया है कि पानी से भरा बादल तथा ज्ञान से परिपूर्ण मनुष्य सदैव झुक कर चलते हैं।
संविधान ने भारत के प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। इस अधिकार का आशय यह नहीं है कि किसी अन्य व्यक्ति की चरित्र हत्या की जाए। उस पर मिथ्या लांछन लगाया जाए और उसके निजता के अधिकार का हनन किया जाए। उक्त दोनों बातें आज मैं व्यथित मन से लिख रहा हूं। क्योंकि सोशल मीडिया में रंगकर्मी नीरज कुंदेर को लेकर तरह-तरह की टिप्पणियां की जा रही है। तकरीबन 35 साल पहले मैंने स्वर्गीय रंगकर्मी अशोक तिवारी को जन नाट्य संघ से जोड़ा था। उनके एकता नाट्य परिषद का मैं संरक्षक था। पता नहीं उस जमाने में आज रंगमंच के क्षेत्र में नाम कमा रहे रंगकर्मी प्रशांत सोनी तथा नीरज कुंदेर पैदा हुए थे या नहीं।
नीरज कुंदेर एक प्रतिभा संपन्न रंगकर्मी हैं। उन्होंने रंगमंच के माध्यम से सामाजिक विद्रूपता,विसंगतियां,भेदभाव का प्रस्तुतीकरण किया है। लोककला, लोकसंगीत के क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। कला को संरक्षित, संवर्धित तथा पोषित करने के लिए विभिन्न दल के जनप्रतिनिधियों,सामाजिक संगठनों, समाजसेवियों तथा बुद्धिजीवियों ने उनकी मदद भी की है। मुझे लगता है नीरज कुंदेर वैचारिक रूप से परिपक्व नहीं थे। उनकी दृष्टि व्यापक नहीं थी। इसलिए वे गलाकाट राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के शिकार हो गए। दुर्भाग्य से पिछले कुछ सालों से कला, साहित्य संस्कृति में भी अंधभक्ति की परंपरा विकसित हो गई है। जिनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं रह गया है।
फिलहाल रंगकर्मी नीरज कुंदेर शांति भंग के अंदेशे में आज कार्यपालिक मजिस्ट्रेट द्वारा जेल भेज दिए गए हैं। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के अंतर्गत सोशल मीडिया में फर्जी आईडी बनाकर साइबर क्राइम का भी उन पर आरोप है। परंतु यह अनुसंधान का विषय है। पुलिस द्वारा साक्ष्य संकलन के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। किंतु यह सुस्थापित विधि है कि न्यायालय द्वारा जब तक किसी व्यक्ति को दोषी साबित नहीं कर दिया जाता तब तक उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाएगी।
व्यक्तिगत अथवा राजनीतिक दुराग्रह के कारण कुछ मित्र नीरज कुंदेर का चारित्रिक इतिहास लिखने में जुट गए हैं। सोशल मीडिया में तरह-तरह की टिप्पणियां की जा रही हैं। रसिक स्वभाव वाले कुछ मित्र ठूंठ और पत्थर से भी रस निकालने में जुटे हैं। एक मर्तबा स्वर्गीय बघेली के कवि कालिका प्रसाद त्रिपाठी ने एक राजस्व मामले में बहस के दौरान एसडीएम की हैसियत से मुझसे कहा था- “वकील साहब भाषा की दरिद्रता अक्षम्य” है। आज भी जब मैं कुछ बोलता अथवा लिखता हूं तो मुझे उनका वह वाक्य याद आ जाता है।
नीरज कुंदेर के साथ 10 साल पुरानी मित्रता को विस्मृत करके उसे खलनायक साबित करने वाले मित्र शायद मित्रता की परिभाषा नहीं जानते। यदि जानते हैं तो निजी स्वार्थों के लिए अंजान बने हैं। अटूट मित्रता वही चलती है, जिसमें निजी स्वार्थ ना हो। मित्रता एक पवित्र रिश्ता है। शायद इसीलिए तुलसी बाबा ने कहा है-
“जे न मित्र दुख होहिं दुखारी, तिन्हहि विलोकत पातक भारी।
निज दुख गिरि सम रज कर जाना, मित्रक दुख रज मेरू समाना।।
जिन्ह के असि मति सहज न आई, ते सठ कत करत मिताई।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा, गुन प्रकटै अव गुनहि दुरावा।।”
हमारे भी कुछ मित्र हैं। जिनसे चार दशक पुरानी मित्रता है। मैं घोषित वामपंथी हूं। वे घोर दक्षिणपंथी हैं। हम दोनों के विचारों में साम्यता नहीं है। फिर भी पारिवारिक संबंध है। जिसका निर्वाह हम दोनों करते हैं। एक दूसरे के दुख विपत्ति में साझीदार होते हैं। मैं कोई उपदेश नहीं दे रहा हूं। कहता वही हूं जिसका पालन कर सकूं। इसीलिए तुलसी बाबा के शब्दों में फिर कह रहा हूं-
काम, क्रोध, मद,लोभ की जौ लौ मन में खान।
तौं लौं पंडित मूरखौ तुलसी एक समान।।
तुलसी साथी विपत्ति के विद्या, विनय, विवेक।
साहस, सुकृत सुसत्यव्रत राम भरोसे एक।।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)