सोमेश्वर सिंह
मोदी सरकार ने अपने पौने दो साल के कार्यकाल मे शिक्षा और शिक्षण संस्थानों के भगवाकरण की पुरजोर कोशिश की है। मानव संसाधन मंत्रालय केन्द्र सरकार का महत्वपूर्ण मंत्रालय है। इस मंत्रालय में अभी तक योग्य, अनुभवी एवं कुशल राजनेताओं ने काम-काज संभाला है। जिनमें पी वी नरसिम्हा राव, कुंवर अर्जुन सिंह, मुरली मनोहर जोशी, कपिल सिब्बल का नाम आदर के साथ लिया जाता है। पहली बार मोदी सरकार में एक अनुभवहीन, दोयम दर्जे के मंत्राणी की नियुक्ति की गई है, ताकि आरएसएस को इन संस्थानों में कब्जा करने में सुभीता हो सके। राजद्रोह, राष्ट्र भक्ति तथा राष्ट्रवाद की नयी परिभाषाएं गढ़ी जा रही है। अफजल गुरू के बहाने राष्ट्रवाद का पाखंड वही लोग कर रहे हैं, जिनकी पार्टी अफजल गुरू को शहीद मानने वाले दल के साथ गठबंधन करके कश्मीर में सरकार बना रही है। मोदी जी एक मात्र ऐसे प्रधानमंत्री है जो पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के पारिवारिक समारोह में बिना बुलाये बनारसी साड़ी, पठानी सूट, गुलाबी पगड़ी लेकर उनके गांव पहुँच गये और वापसी में उपहार के रूप में पठानकोट आतंकी हमला लेकर भारत लौटे।
लोकतंत्र में सरकार की नीतियों और उसके विचारों से असहमत होने का अधिकार जनता के पास होता है। सरकार का विरोध करना अपराध नहीं है। परन्तु मोदी सरकार ने राजा होने का दंभ पाल लिया है। इसीलिये सरकार विरोधी स्वर में उन्हे राजद्रोह की आवाज सुनाई दे रही है। ब्रिटिश साम्राज्य ने 1860 में भारतीय दण्ड संहिता में धारा 124-ए के रूप में राजद्रोह का कानून बनाया था जिसका उद्देश्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की आवाज को दबाना था। राजद्रोह का दोषी ठहराकर अंग्रेजो ने बाल गंगाधर तिलक, गांधी जी सहित अन्य नेताओं को दीर्घकाल तक जेल में रखा। राजद्रोह के अपराध पर टिप्पणी करते हुए गांधी जी ने कहा था- भारतीय दण्ड संहिता की राजनीतिक धाराओं में यह राजा है, जिसे दोषी नागरिको की स्वतंत्रता को कुचलने के लिये गढ़ा गया है। तब से अब तक बदस्तूर यह कानून जारी है। स्वतंत्र भारत में सिर्फ महामहिम की सरकार को हटाकर भारत सरकार कर दिया है। प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1951 में संसदीय चर्चा में भाग लेते हुए कहा था- जहां तक मेरा सवाल है यह खास धारा बहुत ही आपत्तिजनक और घिनौनी है, हमारे द्वारा स्वीकार किये जाने वाले कानूनों में इसके लिये कोई जगह नही होना चाहिए।
दुर्भाग्य से आजादी के बाद भी राजद्रोह के इस कानून को बनाये रखा गया, यह धारा जनतंत्र विरोधी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है। यह धारा सरकार के खिलाफ अवज्ञा की बात करती है न कि राज्य के प्रति। परन्तु इस कानून का अभी तक दुरूपयोग ही हुआ है। छत्तीसगढ़ के समाजसेवी चिकित्सक डॉ. विनायक सेन को जिला न्यायालय ने राजद्रोह का दोषी मानते हुये आजीवन कारावास की सजा से दण्डित किया। आखिर में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत पर छोड़ दिया। मुंबई के कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्टून बनाकर इन्टरनेट पर दिखाया तो उन्हें राजद्रोह के आरोप में जेल भेज दिया गया।
तमिलनाडु के कुडम कुलम परमाणु संयत्र के खिलाफ विरोध में शामिल लोगो पर राजद्रोह का मामला कायम किया गया। मेरठ विश्व विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रो पर सिर्फ इसलिये राजद्रोह का मामला कायम कर दिया गया, क्योकि उन्होंने भारत के खिलाफ पाकिस्तानी क्रिकेट टीम की जीत पर तालियां बजायी थी। जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार का मामला तो ज्वलंत उदाहरण है, जिसने राजद्रोह के अपराध पर राष्ट्रव्यापी बहस हो रही है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केदार नाथ सिन्हा बनाम स्टेट आफ बिहार एआईआर 1962 पेज 955 के मामले में राजद्रोह को स्पष्ट करते हुए कहा था कि ऐसे शब्द, लेख या कृत्य जिससे हिंसा उत्तेजित हो विधि व्यवस्था में विध्न उपस्थित होता हो वही राजद्रोह माना जाएगा। कहने का आशय यह कि राजद्रोह के मामले में हिंसा एक महत्वपूर्ण तत्व है।
अभी हाल में पश्चिम बंगाल के जिला मेदनीपुर निवासी प्याला राम जिनकी उम्र 97 वर्ष है। शरीर जर्जर हो चुका है,चलने फिरने में असमर्थ हैं,उन्हें दिखाई या सुनाई नही देता, माओवादियों को हथियार उपलब्ध कराने के आरोप में राजद्रोह का मामला कायम किया गया है। प्याला राम के विरूद्ध न्यायालय ने गिरफ्तारी वांरट जारी किया है । परन्तु स्थानीय पुलिस उन्हे गिरफ्तार करने के लिए तैयार नहीं है। क्योंकि पुलिस को अन्देशा है कि पुलिस अभिरक्षा के दौरान प्याला राम की मौत हो सकती है। अभी हाल में ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने संवैधानिक पद की गरिमा के प्रतिकूल जाकर निर्लज्जता के साथ यहा तक कह दिया कि जो व्यक्ति भारत माता की जय नहीं बोलेगा उसे भारत में रहने का कोई हक नहीं है। और ऐसे व्यक्ति को भारत छोड़कर जाना होगा।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय और संघी संगठनों का प्रयास है कि समूची शिक्षा व्यवस्था तथा उच्च शिक्षण संस्थानों को तानाशाही पूर्ण हिन्दुत्ववादी मॉडल के हिसाब से ढाला जाए। इसलिए समस्त धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक तथा प्रगतिशील स्वरों को राष्ट्र विरोधी घोषित कर दबाना चाहते हैं। यह भारत के संविधान में निहित जनतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतो पर हमला है। राष्ट्रवाद के नाम पर असहमति के सभी स्वरों तथा विचारो को कुचलने की साजिश है। इनका राष्ट्रवाद भारतीय या हिन्दी राष्ट्रवाद नही है। बल्कि हिन्दू राष्ट्रवाद है। इसीलिए शिक्षा प्रणाली,शिक्षा व्यवस्था के जनतांत्रिक ढांचे को ध्वस्त किया जा रहा है। पाठ्यक्रम में बदलाव किए जा रहे हैं, साम्प्रदायिक विषयों को पाठ्यक्रमों में शामिल किया जा रहा है।
हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक नजरिये से इतिहास का पुनर्लेखन हो रहा है। यही वजह है कि उच्च शिक्षा तथा शोध संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदो पर उपयुक्त लोगों की नियुक्ति की जा रही है।
अभी हाल में आरएसएस सरकार्यवाहक भैयाजी जोशी ने मुंबई में हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए यहां तक कह दिया कि जनगणमन नहीं बल्कि वंदे मातरम् ही वास्तव में राष्ट्रगान तथा भगवा ध्वज ही राष्ट्रध्वज है। यह उनका व्यक्तिगत विचार नहीं है, बल्कि हिन्दू राष्ट्रवाद की भावी रणनीति का एक हिस्सा है। संविधान में निहित राष्ट्रगान तथा राष्ट्रध्वज के प्रतिकूल और उसके समानांतर अन्य राष्ट्रगान तथा राष्ट्रध्वज को महिमा मंडित करना किस तरह की राष्ट्रभक्ति है?
आरएसएस अपनी स्थापना के साथ ही सुनियोजित तरीके से हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा पर काम कर रहा है। कुछ वर्ष पूर्व संगठन के सर संघचालक के एस सुदर्शन ने भोपाल प्रवास के दौरान यह स्वीकार किया था कि संघ स्वतंत्रता आंदोलन के समय शक्ति संचय की साधना कर रहा था। यह कितनी हास्यास्पद दलील है कि जब स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ शक्ति प्रदर्शन कर संघर्ष करने का ऐतिहासिक अवसर आया तब संघ शक्ति संचय की साधना कर रहा था। आखिर यह संचित शक्ति अब जरूर काम आ रही है।
दिसम्बर 1947 में दिल्ली के रामलीला मैदान में संघ का एक अभूतपूर्व समारोह आयोजित किया गया था, अपने किस्म का यह अद्भुत समारोह था। इसमें पत्रकारों को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था। और उस दिन संघ के सरसंघ चालक गोलवरकर ने अपने उद्बोधन में धर्म और संस्कृति की कोई बात नही की। बल्कि स्वयं सेवकों का आह्वान किया था कि उन्हें अब सत्ता सभालने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। आखिर संघ सरीखे अराजनीतिक संगठन नेपथ्य से किससे और किस सत्ता को संभालने का आह्वान कर रहा था। दुर्भाग्य से इस समारोह के आठ सप्ताह बाद ही नाथूराम गोड़से ने महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी। और अंततः अब जाकर मोदी जी ने सत्ता संभाल कर आरएसएस का सपना पूरा कर दिया है। और संघ के द्वारा संचित की गई शक्ति हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए देश के संवैधानिक ढाचें को ध्वस्त करने के कुत्सित प्रयास किए जा रहे हैं।
(लेखक जाने-माने पत्रकार और वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
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