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Sunday, Sep 24, 2023
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विचार

यूं ही मर जाएंगे एक दिन तुम पर मरते मरते

कोरोना फेज टू की याद में

कोरोना का खतरा भले ही ली टल गया है, लेकिन इसकी भयावहता की यादें अब भी जिंदा है। लेखक और पत्रकार सोमेश्वर सिंह उस दौर की सिहरन भरी यादों को ताजा कर रहे हैं-

दूसरे दौर के कोरोनावायरस ने देश में कोहराम मचा दिया है। बेबस, लाचार, बदहवास परिजन संक्रमित मरीज को लेकर अस्पताल और सड़कों में अनाथ दौड़ रहे हैं। आर्तनाद कर रहे हैं। अस्पतालों में दवा नहीं, इंजेक्शन नहीं, ऑक्सीजन नहीं ,बेड नहीं, जीवन रक्षक अन्य उपकरण नहीं। हमारे देश में लोग मर रहे हैं और हम हैं कि डॉनकिंग्जोट बनकर विश्व विजेता बनने का सपना देख रहे हैं। कोरोनावायरस का दूसरा चरण घातक होगा। पहले से ज्यादा मारक और भयावह होगा। यह भविष्यवाणी साल भर पहले दुनिया के वैज्ञानिकों और चिकित्सा शास्त्रियों ने कर दी थी। फिर भी हम सचेत नहीं हुये ना ही कोई सावधानी बरती।
मुझे याद है कि आषाढ़ के चौमासा में गांव गमई के मजदूर, किसान नोन,तेल,उपरी, लकड़ी का इंतजाम कर लेते थे। लेकिन इतनी सीधी ,सच्ची ,सरल बात हमारी सरकार नहीं समझ पायी। हमारे बघेली में एक उक्खान है-” मूड़े का तेल नहीं पहार चुपरै लागें”। घरेलू जरूरतों के हिसाब से हमने कोरोना वैक्सीन व अन्य जरूरी दवा का भंडारण नहीं किया। उद्योगपतियों ,व्यापारियों, कारपोरेट घरानों को मुनाफा पहुंचाने के लिए बेतहाशा निर्यात करते रहे। पिछले अनुभवों से हमने कोई सबक नहीं सीखा ।इसी तरह पीपीई किट, मास्क और सैनिटाइजर भी मुनाफे के लिए निर्यात करते रहे। जिसके अभाव में हमारे देश के हजारों डॉक्टरों की मौत हो गई। अस्पतालों में कोरोनावायरस पीड़ित मरीज ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। हम उन्हें जिंदगी की एक सांस तक नहीं दे पा रहे हैं ।इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा।
जिंदगी देना तो दूर रहा हम उन्हें सुकून की मौत भी नहीं दे पा रहे हैं। भोपाल, इंदौर, सूरत,अहमदाबाद में अंत्येष्टि के लिए जगह नहीं है। संस्कार के लिए लकड़ियां नहीं मिल रही हैं ।सामूहिक रूप से शवो की अंत्येष्टि की जा रही है। कोरोना संक्रमित मौतों की खबर को सेंसर कर दिया गया है। बावजूद इसके भी चोरी-छिपे जो खबरें आ रही हैं, वह दिल दहला देने वाली है। सूरत शहर में एक लाचार बेटा गंभीर रूप से हाथ ठेले में निर्जीव मां को लेकर शहर में बेतहाशा दौड़ता है। ऑक्सीजन की गुहार लगाता है। कोई नहीं सुनता और उसकी मां अंततः मर जाती है। गूंगी बहरी सरकार के इस शह मात के खेल में वही प्यादे और वजीर हैं।
मछलियां आने के बाद जब तालाब खोदे जाएंगे तो निश्चित है कि पानी के अभाव में मछलियां मर जाएंगी। गरीबी बेकारी ,भूख लाचारी ,बीमारी दवाई को भी हमने धर्म,जाति,संप्रदाय में बांट दिया है। हुक्मरान इससे निपटने के लिए नूरा कुश्ती का खेल खेल रहे हैं। वह लड़ते नहीं, लड़ने का मात्र दिखावा करते हैं। उनके कुश्ती का परिणाम तो पहले ही तय हो चुका होता है। आप चाहे तालियां बजाइये या छातियां पीटिये। जीतेगी तो सरकार। हारना तो बस जनता की नियति बन चुकी है। जनता तो बस बूचड़खाने में मुर्गी दाना चुगने में मशगूल है। उसे नहीं पता कि एक न एक दिन उसे भी हलाल होना है। बस बारी का इंतजार है।
बचपन में एक बाजीगर का खेल देखा करते थे। जिसमें एक जमूरा और एक उस्ताद हुआ करता था। उस्ताद के हाथ में एक करिश्माई लकड़ी का छोटा डंडा और दूसरे हाथ में डुगडुगी हुआ करती थी। उस्ताद किसी चौराहे के कोने में खड़ा होकर डुगडुगी बजाता, आकर्षक डायलॉग बोलता। उसका जादुई करतब देखने के लिए भीड़ जुटती ।वह जमीन में एक चादर बिछाता, काले रंग का पिटारा रखकर बैठ जाता।सांकेतिक भाषा में उस्ताद जो कुछ कहता जमूरा हामी भरता। वह किशम किशम के चमत्कारिक करतब दिखाता ,भोली-भाली जनता से पैसे वसूलता और फिर अंत में बा कायदे हाथ जोड़कर कहता – यह हाथ की सफाई है। यदि धूल से रुपया बना पाता तो गली-गली खाक नहीं छानता। उसके हुनर में ईमानदारी हुआ करती थी। आज का उस्ताद तो बेईमान हो गया है जिसने पूरे देश की जनता को जमूरा बना दिया। आज का उस्ताद उत्सवधर्मी है। कभी कोरोनोत्सव मनाता है तो कभी टीकोत्सव। आजकल वह मृत्योत्सव मनाने की तैयारी कर रहा है।
शायद ऐसे में ही किसी शायर ने ठीक ही कहा है-
“अपनी मौत भी क्या मौत होगी ऐ खुदा,
यूं ही मर जाएंगे एक दिन तुम पर मरते मरते,”

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