बादल सरोज
डॉ अम्बेडकर संविधान निर्माता माने जाते हैं। सिर्फ संविधान निर्माता नहीं थे डॉ अम्बेडकर, निस्संदेह वे ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन थे और विराट बहुमत से चुने गए थे। संविधान में उनके विजन- नजरिये-का महत्वपूर्ण योगदान है। किन्तु उन्हें यहीं तक सीमित रखना उनके वास्तविक रूप को छुपाने की साजिश का हिस्सा बनना होगा। गाँव गाँव में डॉ अम्बेडकर के पुतले खड़े कर दिए हैं जिसमे उनके हाथ में संविधान की किताब पकड़ा दी गयी है। वह किताब जिसके बारे में बाद के वर्षों में, खासकर मृत्यु के 3-4 वर्ष पहले से ही उन्होंने काफी कुछ कहना शुरू कर दिया था ।
असली अम्बेडकर जाति व्यवस्था का सबसे सुव्यवस्थित अध्ययन करने वाले व्यक्ति हैं / जाति शोषण के अंत-जातियों के विध्वंस की बात करने वाले ‘बाबा साहेब’ हैं।
प्रसंगवश बाबा साहब का यह संबोधन उन्हें कामरेड आर बी मोरे ने दिया था। कामरेड मोरे कम्युनिस्ट थे, बाद में सीपीएम के नेता रहे, विधायक रहे। वे 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा के लखनऊ स्थापना सम्मेलन में भी शामिल रहे।
बाबा साहब का अनोखा योगदान यह है कि उन्होंने जाति और वर्ण के द्वैत की अद्वैतता– मतलब इनके रूप में अलग अलग होने और उसी के साथ सार में एक सा होने को समझा और दोनों ही तरह के शोषण के खिलाफ लड़ाई को ही सामाजिक मुक्ति की गारंटी माना।
डॉ अम्बेडकर ने अपनी पहली राजनीतिक पार्टी 15 अगस्त 1936 को बनाई ; नाम रखा इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी। इसका झंडा लाल था। इसके घोषणापत्र में उन्होंने साफ़ साफ शब्दों में कहा था कि “भारतीय जनता की बेडिय़ों को तोड़ने का काम तभी संभव होगा जब आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह की असमानता और गुलामी के खिलाफ एक साथ लड़ा जाये।”
एक फेबियन होने के नाते भले वे वर्ग की क्लासिकल आधुनिक परिभाषा की संगति में नहीं थे। मगर भारत में आर्थिक और सामाजिक शोषण के शिकार तबकों की वर्गीय बनावट के प्रति सजग थे। मोटे तौर पर फेबियनवाद एक तरह की ऐसी विचारधारा रही जो बिना क्रान्ति के समाजवाद, बराबरी और लोकतंत्र लाना चाहती थी। उसकी भाषा मार्क्सवाद की तरह नहीं थी इसलिए उन्हें समझने के लिए मार्क्सिस्ट जॉर्गन की वर्तनी कारगर नहीं होगी।
मगर बाबा साहब ने भारतीय समाज के मामले में वर्ण और वर्ग की पारस्परिक पूरकता– ओवरलेपिंग समझी थी। इसी आधार पर उन्होंने अपनी सक्रियता के दायरे तय किये ।
यही वजह है कि महाड़ के सत्याग्रह, चावदार तालाब के पानी की लड़ाई लड़ने के साथ, मनु की किताब जलाने और गांधी जी से तीखी बहस करने के बीच वे ट्रेड यूनियन बनाने और मजदूरों की लड़ाई लड़ने का भी समय निकाल लेते थे।
जाति का वर्ग तथा जेंडर भी पहचाना
उनका सबसे अधिक योगदान इस देश की महिलाओं के अधिकारों के लिये उनका संघर्ष था। बाबा साहब ने जाति का क्लास ही नहीं पहचाना था- उन्होंने जाति का जेंडर भी ढूंढा था। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अपनी थीसिस में उन्होंने लिखा कि “जाति की मुख्य विशेषता जाति के अंदर ही शादी करना है। कोई स्त्री अपनी इच्छा से शादी नहीं कर सकती। इसके लिए प्रेम पर भी रोक लगा दी गयी। बाल विवाह की कुरीति और विधवाओं के साथ सलूक तथा विधवा विवाह पर रोक इसी के लिए हैं।”
जाति शोषण की दीर्घायुता के जेंडर की पहचान उनका एक बड़ा मौलिक काम था। भारत के इस पहले कानून मंत्री ने महिलाओं के हक़ों के प्रति अपने समर्पण की वजह से अपने पद से इस्तीफा दे दिया था जब लोक सभा में हिंदू कोड बिल के खिलाफ तमाम जनसंघी और तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल सहित तथाकथित प्रगतिशील कांग्रेस के नेता भी खडे हो गये।
बाबा साहब और आज का भारत
मनुष्यों के बीच समानता और हर तरह की गैरबराबरी को मिटा देने की संविधान प्रदत्त समझदारी को अपराध यहां तक कि राष्ट्रद्रोह बताया जा रहा है। एक अम्बानी के 90 करोड़, एक अडानी की 112 करोड़ प्रति घंटे कमाई देख स्पष्ट है कि संपत्ति के केन्द्रीकरण की तो कोई सीमा ही नहीं बची। कमाई और लूट समानार्थी शब्द बन गए हैं। लोकतंत्र के चारों खम्भे डगमग कर रहे हैं। न्यायपालिका तक अछूती नहीं रही है। इधर बाकी सब को अधीनस्थ दास बनाने को ही राज चलाने का सही तरीके मानने वाले चतुर दुनिया के खुदगर्ज बड़े दानवों के मातहत और सेवक बनने पर गर्वित और गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। अंधविश्वास के घंटे घड़ियाल खुद संवैधानिक पदों पर बैठे लोग बजा रहे हैं। असहमतियों को कुचल कर, विमर्श को प्रतिबंधित करके आज को घुटन भरा बनाकर आगामी कल को आशंकाओं भरा बना दिया गया है। संविधान के फंडामेंटल राइट्स मूलभूत अधिकार छीने जा रहे हैं।
आज संविधान और उसमे निहित लोकतंत्र सहित बाकी समझदारियों पर जो खतरे मंडरा रहे हैं वे अनायास नहीं है। वे अप्रत्याशित भी नहीं। हैं इनके बारे में इसके निर्माता सजग थे, उन्हें इसकी आशंका थी। खुद डॉ. बी आर अम्बेडकर ने 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में दिए अपने आख़िरी भाषण में कहा था कि “संविधान कितना भी अच्छा बना लें, इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे तो यह भी बुरा साबित हो जाएगा।’”
हालांकि इस बात की तो संभवत: उन्होंने कल्पना तक नहीं की होगी कि ऐसे भी दिन आएंगे जब संविधान लागू करने का जिम्मा ही उन लोगों के हाथ में चला जाएगा जो इस मूलत: इस संविधान के ही खिलाफ होंगे। जो सैकड़ों वर्षों के सुधार आंदोलनों और जागरणों की उपलब्धि में हासिल सामाजिक चेतना को दफनाकर उस पर मनुस्मृति की प्राणप्रतिष्ठा के लिए कमर कसे होंगे। मगर आज स्थिति यही है।
वह आरएसएस जिसने संविधान बनाने का ही विरोध किया- खुलकर कहा कि मनुस्मृति ही भारत का संविधान है, वह सत्ता में बैठा है और उसी मनुस्मृति के अनुरूप देश चलाने. प्रशासन को ढालने, समाज मरोड़ने की कोशिश में है। अभी औपचारिक रूप से संविधान को बनाये रखते हुए, इसके बाद संविधान को ही बदलने की तरफ बढ़ते हुए। आज के दौर का सबसे बड़ा संकट यह है।
इसी भाषण में बाबा साहब ने कहा था कि “अपनी शक्तियां किसी व्यक्ति- भले वह कितना ही महान क्यों न हो, के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताकत दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे। संविधान और लोकतंत्र के लिए खतरनाक स्थिति है।” इसे और साफ़ करते हुए वे बोले थे कि ‘’राजनीति में भक्ति या व्यक्ति पूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है।’’
1975 से 77 के बीच आतंरिक आपातकाल भुगत चुका देश पिछले छह वर्षों से जिस भक्त-काल और एकल पदपादशाही को अपनी नंगी आँखों से देख रहा है उसे इसकी और अधिक व्याख्या की जरूरत नहीं है। यह बर्बर तानाशाही का रास्ता है- संविधान तो अलग रहा मनुष्यता के निषेध का रास्ता है।
आज के समय में मिशन का मतलब
इसलिए बिलाशक भारत उसके संविधान और लोकतंत्र पर झपट रही भेड़ियों की फ़ौज से लड़ना होगा। समानता की धारणा संविधानसम्मत समझ की तरफ लपक रही लपटों को बुझाने के लिए राजनीतिक मोर्चे पर लड़ना होगा। ठीक वैसे जैसे गाँव की आग बुझाते हैं। पीने का पानी, कुंए, हैंडपम्प का पानी, पोखर, तालाब का पानी और जहां जैसा वैसा उजला पानी, कम उजला पानी होगा, जुटाना होगा।
इसी के साथ, इसके बाद नहीं, इसी के साथ लड़ना होगा इस भारत विरोधी हिंदुत्व के पालनहार कारपोरेट से। वैसे ही जैसे 3 कृषि कानूनों के खिलाफ किसान और 4 लेबर कोड के खिलाफ मजदूर लड़े और लड़ रहे हैं।
मगर इसी के साथ साथ मनु को देश निकाला देने के लिए विशेष जिद के साथ लड़ना होगा। यह लड़ाई बाद में फुर्सत से, अलग से नहीं लड़ी जाएगी। एक सत्ता लड़ी जायेगी। और यह भी कि यह लड़ाई समाज में ही नहीं लड़ी जाएगी, यह घर, परिवार और अपने खुद के भीतर भी लड़ी जाएगी।
आज यदि बाबा साहब होते तो उनके मिशन का भी यह अर्थ होता। इसे लड़ना-और जीतना होगा-साथ साथ। क्या ऐसा होगा? ऐसा ही होगा क्योंकि इतिहास हादसों के नहीं निर्माणों के होते हैं।
लेखक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और लोक जतन के संपादक हैं। यह लेख उनकी फेसबुक वॉल से लिया है।