सोमेश्वर सिंह
सीधी में पत्रकार एवं रंगकर्मियों को पुलिस अभिरक्षा में अर्धनग्न किए जाने की खबर ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। सीधी के पत्रकारों ने एक गैर पत्रकार को पत्रकार बता कर उसकी अर्धनग्न फोटो वायरल कर के पत्रकारों की छवि धूमिल करने वालों के खिलाफ कार्यवाही के लिए पुलिस अधीक्षक सीधी को ज्ञापन दिया है। तकनीकी रूप से कनिष्क तिवारी पत्रकार है या नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं है। फिर भी वे भारत के एक नागरिक हैं। क्या एक नागरिक को पुलिस अभिरक्षा में अर्धनग्न किए जाने तथा उसकी फोटो वायरल किए जाने का अधिकार पुलिस को है। पुलिस के इस बेहद शर्मनाक कार्यवाही की देशभर के मीडिया तथा कांग्रेस नेताओं ने निंदा की है।
सीधी के कार्डधारी, टैगधारी, मान्य, अधिमान्य, अमान्य सर्वमान्य, किस्म-किस्म के पत्रकारों से क्षमा याचना के साथ अनुरोध है कि पहले वे यह बताएं कि सीधी के इस शर्मनाक घटना के लिए वह किसे जिम्मेदार मानते हैं तथा किसके साथ खड़े हैं। जो पिट रहा है या जो पीट रहा है। शायद इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है। क्योंकि निरंकुश राजसत्ता ने सुविधाओं के नाम पर सभी पत्रकारों का माइंड सेट कर दिया है। इन हालात पर मुझे एक कविता की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-
कोहनी पर टिके हुए लोग,
टुकड़े पर बिके हुए लोग।
करते हैं बरगद की बातें,
यह गमले में लगे हुए लोग।।
पत्रकारों की कई श्रेणियां है। सरकारी भाषा में कहें तो अधिमान्य तथा गैर अधिमान्य। पत्रकारिता की भाषा में कहें तो अधिकृत पत्रकार। अर्थात किसी प्रिंट अथवा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से अधिकृत कार्डधारी पत्रकार। इस तरह के पत्रकारों को सरकार कई सुविधाएं देती हैं। यात्रा, टोल फ्री, चिकित्सा, दुर्घटना बीमा, पेंशन, श्रद्धा निधि,आवास के लिए न्यूनतम ब्याज पर ऋण सुविधा आदि-आदि। हमारे जमाने में यह सुविधाएं नहीं थी।20 साल तक मैंने वैतनिक पत्रकारिता की। कुत्ते की मानिंद गले में पट्टा बांध कर एक खूंटे से बंधा रहा। संसर्ग को छोड़कर अखबार मालिक की मर्जी से खाना पीना, हगना-मूतना होता था। कोई व्यक्तिगत अथवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं थी। बगैर मालिक की मर्जी भौंकना भी मना था।
बहुत दिनों तक कार्ड धारी पत्रकारिता का टैग बांधे मैं गौरवान्वित था। अपने मुंह मियां मिट्ठू बना रहा। सामने से लोग बहुत सम्मान करते थे। लेकिन पीठ पीछे गरियाते थे। इश्क और पत्रकारिता की सार्थकता तभी है जब आप पिट जाएं। मेरे हिसाब से जो पिटा नहीं वह पत्रकार हो ही नहीं सकता। पत्रकारिता में सामाजिक मान्यता सर्वोपरि है। क्योंकि अधिमान्य पत्रकारिता में चापलूसी और भांडगीरी करनी पड़ती है। साधारण पत्रकार को मान्यता के लिए बहुत पापड़ बेलना पड़ता है। ना चाहते हुए भी नीच किस्म के नेताओं, अफसरों की चरण वंदना करनी होती है।
शराब माफिया,भू माफिया,रेड लाइट से जुड़े कारोबारी, अफसर, नेताओं को यह सरकार बड़ी सरलता से अधिमान्यता दे देती है। भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, उज्जैन की घटनाओं से यह साबित हो चुका है। 20 साल के बाद मेरा भ्रम टूटा। इसलिए पिछले 20 साल से गले से पट्टा (टैग) उतार कर फेंक चुका हूं। अब सड़क छाप आवारा, छुट्टा हूं। अपनी मर्जी का मालिक हूं। न कोई रै-रै, न कोई खैं-खैं। अब अपनी मर्जी से भौंकता हूं और दुम भी हिलाता हूं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)