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Wednesday, Sep 27, 2023
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विचार

तो आजम खां से छुटकारा चाहते हैं अखिलेश?

केपी सिंह
एक समय समाजवादी पार्टी के प्रमुख स्तंम्भ रहे आजम खां को लेकर आजकल अटकलों का बाजार गर्म है। उनके नजदीक के लोगों के सुर बताते हैं कि वे अखिलेश यादव से खार खा चुके हैं। दूसरी ओर यह भी अफवाह है कि भाजपा ने उन्हें आफर भिजवाया है कि अगर वे अखिलेश से अलग हो जायें तो उन्हें बख्श दिया जायेगा। जेल की लंबी होती जा रही जिंदगी ने आजम खान का हौसला भी काफी हद तक तोड़ दिया है जिससे उन्हें भाजपा की यह पेशकश तपती धरती पर शीतल जल पड़ने के मानिन्द राहत और शुकून भरी लगी है और उन्होंने भाजपा की शर्त को कुबूल करना मान लिया है। अपने इस कदम को उठाने के लिए वे भूमिका बनाने में जुटे हैं। जिसके लिए उनके नजदीकी लोग अखिलेश को एहसान फरामोश साबित करने की मुहिम चलाने में लग गये हैं। गौर करने वाली बात यह है कि अखिलेश की ओर से उन्हें रोकने का भी कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है तो क्या अखिलेश खुद ही उनसे पिंड छुड़ाना चाहते हैं।
पहले दिन से ही अखिलेश को हजम नहीें थे चचा जान
2012 में जब अपनी पार्टी को बहुमत मिलने के बाद मुलायम सिंह अपनी जगह अखिलेश का अपने सामने रहते हुए राजतिलक कराने का मन बनाये हुए थे तो उन्होंने घर परिवार के लोगों तक को अपने इस इरादे की भनक नहीं लगने दी थी। अपना निश्चय जाहिर करने के पहले परिवार के लोगों सहित सारे सहयोगियों को उन्होंने कई दिनों तक घुमाया फिराया। कभी जाहिर किया कि वे फिलहाल खुद ही गद्दी संभालेंगे। कभी शिवपाल को मुख्यमंत्री बनाने का इशारा दिया। लेकिन अंत में बहुत ही नाटकीय ढंग से वे अखिलेश को सामने लाये तो परिवार और पार्टी के वरिष्ठ लोग असहज हो गये थे। वे अपने को उनके लड़के के अंडर में काम करने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं कर पा रहे थे। उनकी मनोदशा कहीं न कहीं मुलायम सिंह भी भांप रहे थे इसलिए उनका प्रस्ताव था कि वे स्वयं, शिवपाल और आजम खान भी राष्ट्रीय राजनीति में दिल्ली पर पार्टी का झंडा फहराने के लिए काम करें और प्रदेश में अखिलेश को स्वच्छंद होकर सरकार चलाने दें। पर कामराज योजना की कुछ-कुछ तर्ज का मुलायम का यह पैंतरा न शिवपाल ने कामयाब होने दिया और न ही आजम खान ने। मजबूरी में अखिलेश को अपने मंत्रिमंडल में ऐसे दिग्गजों को साथ रखना पड़ा जिन पर वे अपना जोर नहीं चला सकते थे। इसके चलते तीन साल तक अखिलेश को सरकार चलाने में बड़ी मुश्किलें पेश आयी। फिर अखिलेश ने अपने तरीके से काम करना शुरू किया लेकिन तो भी शिवपाल व आजम खान के विभाग में उनका कोई दखल नहीं बना।
सपा के चुनावी बंटाधार के प्रणेता कैसे बने आजम
अखिलेश ने अपने पिता मुलायम सिंह से अलग रास्ता अपनाया था जिससे कार्यकाल के अंतिम दो सालों में वे सपा को पुरानी छवि से उबारकर विजनरी छवि वाली पार्टी का रूप देने में सफल हो रहे थे। युवकों को यह रास आ रहा था जिससे सपा के साथ नया खून जुड़ने में तेजी आयी थी। पर अपनी सरकार पर आजम खां की सुपरमेसी को खत्म करना उनके वश में फिर भी नहीं हो पाया था। इस बीच उनके दुर्भाग्य से मुजफ्फरनगर में दंगा हो गया जिसकी आग बाद में समूचे पश्चिती उत्तर प्रदेश में फैल गई। इस दौरान आजम खां ने निरंकुश दखल देकर अखिलेश के सारे किये कराये पर पानी फेर दिया। वे मुजफ्फरनगर दंगों में अपनी भूमिका के कारण हिन्दुओं के बीच सबसे बड़ा खलनायक चेहरा बन गये। 2017 के चुनाव में अखिलेश को अपनी सत्ता गंवाकर इसकी कीमत चुकानी पड़ी। आजम खान के प्रति हिन्दुओं की नफरत अभी तक कायम है। 2022 के चुनाव में सपा के सत्ता में आने पर आजम का जलबा जलाल फिर बहाल होने के अंदेशे के चलते ही योगी सरकार के प्रति भीषण नाराजगी के बावजूद वोट प्रतिशत और सीटों की संख्या बढ़ाकर भी सपा सत्ता के मैजिक नम्बर से बहुत पीछे रह गई।
शुरू से ही विवादित हैं आजम
कांग्रेस सहित दूसरी तमाम पार्टियों में पहले भी असरदार मुस्लिम नेता पनपे जिन्होंने पूरे समाज में प्रभावशाली इमेज बनायी। इनकी राजनीति का एक सलीका होता था, ये नेता सूझबूझ के धनी रहे थे। वीपी सिंह जब प्रधानमंत्री बने थे तो मुफ्ती मुहम्मद सईद के रूप में देश में पहली बार किसी मुसलमान को गृह विभाग सौंपने का फैसला लिया था। उनकी मंशा मुसलमानों को और मजबूती से देश की मुख्यधारा में शामिल करने की थी क्योंकि मुसलमानों के प्रति संदेह की धारणा के कारण कई संवेदनशील जिम्मेदारियां उन्हें सौंपने से परहेज किया जाता था। यह एक अलग प्रसंग है यहां इसका संदर्भ यह है कि मुफ्ती मुहम्मद सईद को वीपी सिंह किसी अजायब घर से तलाशे गये नमूने के रूप में नहीं लाये थे, उनका पहले से अपना समृद्ध प्रोफाइल था। वे पहले भी केन्द्रीय मंत्रिमंडल में रह चुके थे और पूरे देश में उन्हें एक स्थापित नेता के तौर पर जाना जाता था। पर मुसलमानों में ही नहीं हर कौम के लिए नेता तलाशने और उभारने के मुलायम सिंह के पैमाने अलग थे। आजम खान शुरू से ही विवादित होने के कारण सुर्खियों में आये थे। उनके बारे में अपने समय के उत्तर प्रदेश के बहुत प्रसारित हिन्दू साम्प्रदायिकता का प्रतिनिधित्व करने वाले हिन्दी अखबारों ने यह खबर छापी थी कि एक नये कट्टर मुसलमान नेता ने भारत माता को डायन कहकर पूरे देश का अपमान किया है और इसके चलते उनके प्रति पूरे प्रदेश में जबरदस्त गुस्से की लहर दौड़ गई थी। हालांकि अखबारों ने संदर्भ से काटकर भावनायें भड़काने के लिए आजम खान की तकरीर के एक अंश को शरारतन प्रकाशित किया था जिससे सनसनी फैलाकर प्रसार बढ़ाने का उनका मंसूबा काफी हद तक कामयाब हो गया था।
बहरहाल मुलायम सिंह की उन पर निगाह उनके इसी कथित बयान के कारण पड़ी और वे उनकी हिमायत में खड़े हो गये। इसके बाद जैसे -जैसे मुलायम सिंह राजनीतिक पायदान की ऊंची सीढ़ियां चढ़ते गये वैसे-वैसे आजम खान का रसूख उनकी पार्टी में बढ़ता गया। इसका कारण यह था कि परिपक्व होने के बाद में भी आजम खान ने अपनी बेहूदा और हिन्दुओं को आहत करने वाली कट्टर शब्दावली में कोई सुधार नहीं किया।
भाजपा को होना चाहिए मुलायम का आभारी
मुलायम ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भाजपा की सेवा असली तौर पर की है जिसके लिए भाजपा को उनका आभार मानना चाहिए और शायद भाजपा मानती भी है। मुलायम सिंह ने दूसरी पार्टियों के धर्मनिरपेक्ष कुनबे का सफाया किया ताकि मुसलमानों को असहाय करके वे अपना बंधक बना सकें। दूसरी ओर उन्होंने पार्टी में मुस्लिम नेताओं के नाम पर ऐसे तत्वों को पनाह दी जिससे संघ परिवार की हिन्दुओं के ध्रुवीकरण की मंशा को खाद पानी मिल सके। उत्तर प्रदेश में भाजपा को शिखर पर पहुंचाने का बहुत कुछ श्रेय मुलायम सिंह को है और आजम खान इसमें बड़ा फैक्टर रहे हैं।
अखिलेश की निगाह में आजम हो गये हैं सपा के लिए बोझ
2022 के विधानसभा चुनाव में इतनी मजबूत फिजा के होते हुए भी सपा का सत्ता में वापसी का सपना पूरा नहीं हुआ जिसे लेकर अखिलेश ने बहुत सबक सीखे हैं। इसमें एक सबक यह भी है कि सपा में आजम खान का रौल अब खतम हो चुका है इसलिए उन्हें विदाई देने में ही भलाई है। भाजपा ने हिन्दू गर्व और मद को जिस सीमा तक गरमा दिया है उसमें अभी दशक डेढ़ दशक तक कोई गिरावट आने वाली नहीं है। ऐसे में भाजपा की प्रतिद्वंदिता के लिए सपा को एक-एक कदम फूंक-फूंककर रखना होगा। हर ऐसे प्रतीक से बचना होगा जिस पर हिन्दुओं को आपत्ति हो। अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने प्रदेश को आधुनिक विकास का जो सपना दिखाया उससे लोग प्रभावित न हो ऐसा नहीं है लेकिन सपा की पुरानी स्मृतियों के हर निशान को मिटाने पर ही यह फलदायी बन पायेगा। इसलिए चाहे शिवपाल हो या आजम खान अगर ये सपा से छिटक जायें तो अखिलेश को मानना चाहिए कि यह उनका बहुत बड़ा हित है। सपा की शुरूआत का समय देश की राजनीति का संक्रमण काल था जिसमें मुलायम सिंह का जिसकी लाठी उसकी भैंस का फार्मूला ही कामयाब था। पर मोदी युग ने कम से कम इस मामले में समाज की स्थितियों को काफी हद तक पटरी पर ला दिया है। इसलिए नये परिवेश में नफ़ासत की शैली और विकास के विजनरी सपने को रोडमैप बनाकर ही कोई पार्टी भाजपा का विकल्प बनने की तैयारी कर सकती है।

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