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Monday, Sep 25, 2023
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विचार

मई दिवसः एक सच्चे सपने को यथार्थ में बदलने के संकल्प का दिन

बादल सरोज
कुछ घण्टे पहले पृथ्वी के सबसे पूर्वी कोने के न्यूजीलैंड के छोटे से टापू चैथम और उससे भी दो घण्टे पहले प्रशांत महासागर के कीर्तिमती द्वीप पर सूरज की किरणों के आगमन के साथ नयी तारीख का आगाज हो चुका है। नयी तारीख मतलब 1 मई। एक मई मतलब दुनिया की ऐसी अकेली तिथि/दिनांक/डेट जो पूरी दुनिया को जोड़़ती है। जो सारे राष्ट्रों, देशों और उनकी राष्ट्रीयताओं के ऊपर जाकर उन्हें एक साझी दुनिया के रूप में एकाकार करती है ।
यह दिन-मई दिवस-का दिन है। मजदूरों के अंतर्राष्ट्रीय त्यौहार का दिन। एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय पर्व जिसे सब धर्मों-पन्थों-ईश्वरीय और अनीश्वरीय आस्थाओं, मतों को मानने वाले एक साथ मनाते हैं। एक दिन -दुनिया का इकलौता दिन- जिस दिन दुनिया में बोली जाने वाली हर भाषा-बोली में एक से नारे गूंजते, एक ही तरह के संकल्प दोहराये जाते हैं । अपने और पूरी दुनिया के साझे दुश्मन के खिलाफ एक सुर-तान के साथ उठती हैं आवाजें, तन कर हवा को चीरती उठती हैं हर रंग-जाति-नस्ल की जिद्दी मुट्ठियाँ ।
इस मायने में भी अनूठा है विश्व मानवता का यह त्यौहार कि यह न तो आसमान से उतरा है न किसी आभासीय अस्तित्वहीन मिथक से सृजित हुआ है । देखीभाली दुनिया के जीतेजागते इंसानों की जद्दोजहद और कुर्बानी का प्रतीक है : श्रम और सर्जना इसका डीएनए है और खुद के रक्त में भिगोकर लाल किया झण्डा इसका प्रतीकचिन्ह है ।
महज 137 साल में मई दिवस का यह दर्जा हासिल कर लेना मानव इतिहास की अनोखी मिसाल है। कोई भी दिन, विशेषकर मजदूरों से जुड़ा दिन सहजता में इतना लोकप्रिय नहीं होता ।
सच कितना भी खुल्लम खुल्ला और स्थापित क्यों न हो, वह अपने आप लोगों के बीच नहीं पहुंचता। खासतौर से तब जब सत्ता प्रतिष्ठान के सारे अंग-पुलिस, न्याय पालिका और अखबार पूंजी के स्वामित्व के चाकरों की तरह काम कर रहे हो। अंतत: वहीं विचार जिंदा रहते हैं जिनके लिए लोग मरने को तैयार हों। मई दिवस इसी जिन्दा विचार का नाम है ।
मईदिवस का आगाज 1 मई 1886 को हे मार्किट चौराहे शिकागो पर इकट्ठा हुये मजदूरों से हुआ ।
वे कई दिनों से लड़ रहे थे ; ब्रेड, सॉसेज, कपड़ा और न जाने किस किस तरह की फैक्ट्रियों के मजदूर थे वे। सूरज उगने से पहले काम के लिए निकलते थे- डूबने के काफी देर बाद घर वापस लौटते थे। अपने बच्चों की उम्र बढ़ने का अंदाजा वे नाप से ही निकालते थे क्यूंकि उन्हें सोता हुआ छोड़ कर जाते थे – उनके सो जाने के बाद लौट पाते थे।
उनकी मांग थी कि काम के घंटे 12-14 नहीं, आठ होने चाहिए। उनका नारा था आठ घंटे काम, आठ घंटे जीवन और बाकी मनोरंजन, आठ घंटे आराम ।
जब मालिकों ने नहीं सुनी तो इसी मांग को लेकर पहली मई को उन्होंने हड़ताल करके शिकागो के हे मार्किट चौराहे पर बड़ी सी सभा की। सभा अच्छी खासी चल रही थे कि अचानक उसमे मालिकों के भेजे गुर्गों ने उत्पात मचाना शुरू कर दिया। उन्ही में से किसी ने भीड़ पर एक बम फेंका – पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी जिसमे कई लोगों की मौत हो गयी।
इसी हादसे में मारे गए एक मजदूर की खून में भीगी कमीज को झंडे की तरह लहरा कर शिकागो के मजदूरों ने दुनिया के अपने भाई-बहनो को उनके संघर्ष का झंडा – लाल झंडा – थमा दिया।
इस दमन के खिलाफ 1886 की चार मई को रात 8:30 बजे शिकागो के हे-मार्केट पर फिर मजदूर रैली हुई। एक ट्रक के ऊपर खड़े होकर करीब 2500 लोगों की भीड़ को संबोधित करते हुए एक स्थानीय अखबार के संपादक आगस्त स्पाइज ने एक और तीन मई को हड़ताली मजदूरों पर चलाई गोली का विरोध किया। उनके बाद मजदूर नेता अल्बर्ट पार्सन्स बोले। आखिर में एक मेथोडिस्ट उपदेशक सैमुअल फील्डेन ने भाषण दिया।
रात के करीब 10:30 बजने को थे, फील्डेन का भाषण खत्म होने को ही था, सभा में मुश्किल से कुल जमा 200 लोग ही बचे थे। तभी अचानक 178 हथियार बंद पुलिस वालों ने इस मासूम सी भीड़ पर हमला बोल दिया। इस बीच किसी ने डायनामाइट बम फेंक दिया। बाद में पता चला कि कारखाना मालिको के किसी गुर्गे ने यह हरकत की थी। बम पुलिस के बीचों बीच गिरा। बदहवास पुलिस बल ने अंधाधुंध गोली चलाकर न सिर्फ चार मजदूरों को मार डाला बल्कि खुद अपने छह पुलिस वालों की जान ले ली।
इसके बाद शुरू हुआ अमेरिकी इतिहास का तब तक का सबसे बर्बर दमन और पूंजीवादी सत्ता का नंगा नाच। आठ मजदूर नेताओं पर मुकदमे चलाए गए जिनमें से चार को 11 नवम्बर 1887 को फांसी पर लटका दिया गया। एक दिन पहले इनमें से एक लुईस लिंग्ज को उनकी जेल कोठरी में मृत पाया गया।
4 मई के अगले सुनवाई और मुकद्दमों का नाटक (कुछ वर्षों बाद उसी अदालत ने कहा था कि फैसला गलत था) करके आठ घंटे काम के आंदोलनों के नेता ऑगस्ट स्पाइस, अल्बर्ट पार्सन्स , एडोल्फ फिशर, जॉर्ज एंगेल्स 11 नवम्बर 1887 को फांसी पर लटका दिए गए। एक और थे 23 साल के लुइस लिंग्ज जिन्हें एक रात पहले अपनी काल कोठरी में लटका हुआ पाया गया।
ये चारों फांसी के लिए ले जाते समय उस समय का अंतररष्ट्रीय गान गाते हुए जा रहे थे। फांसी का फंदा गले में डालते हुए ऑगस्ट स्पाइज ने चिल्ला कर कहा था ; “आज तुम जिस आवाज का गला घोंट रहे हो, एक दिन आएगा जब हमारी यह खामोशी सारी आवाजों से ज्यादा मुखर होगी।”
प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक़ फांसी से उतारे जाने के बाद भी उनका गला घोंटा गया क्योंकि वे मरे नहीं थे। पार्सन्स को अंतिम विदाई देने ढाई लाख से ज्यादा नागरिक शिकागो की सडकों पर सड़क के दोनों ओर पंक्तिबद्द होकर खड़े रहे।
इस निर्मम दमन और पूंजीवाद के अमानवीय चेहरे के खिलाफ दुनिया भर में विरोध कार्यवाहियां आयोजित की गई और कुछ ही वर्ष में इसने पूंजीवाद के विरूद्ध मजदूर वर्ग के अंतर्राष्ट्रीय दिवस-मई दिवस- का रूप धारण कर लिया।
वे साधारण से मजदूर, एक्टिविस्ट, अखबारनवीस कितने सही थे। वे फांसी से उतारे जाने के बाद गला घोंटने के धतकर्मों के बाद भी आज तक जीवित है और आज सूरज के उगने से सूरज के डूबने तक धरती के सुदूर पूरब से दूर की पश्चिम तक हर देश में करोड़ों की तादाद में मुट्ठी ताने निकल रहे होंगे हर देश में ; उनकी खामोशी आज उनके मौन से कहीं ज्यादा मुखर है।
(लेखक अभा किसान सभा के उपाध्यक्ष और लोकजतन के सम्पादक हैं।)

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