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Thursday, Dec 7, 2023
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राजनीति

“गोविन्द” को “कमान” यानि कांग्रेस ने सुधारी “गलती”

भोपाल/ग्वालियर(देसराग)। अंततः तमाम अटकलबाजियों और कयासों के बीच कांग्रेस ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर पार्टी के वरिष्ठतम विधायकों में शुमार डाक्टर गोविंद सिंह को नेता प्रतिपक्ष का दायित्व सौंप ही दिया। लेकिन जहां एक ओर कांग्रेस आलाकमान के इस फैसले को अब देर से ही सही दुरुस्त रुप से उठाया गया कदम माना जा रहा है। तो दूसरी ओर डाक्टर गोविन्द सिंह की इस नई पारी को चुनौतियों से भरा माना जा रहा है, जिसमें उन्हें अब तक की सबसे कठिन सियासी अग्निपरीक्षा से गुजरने की बात कही जा रही है।
यह अग्निपरीक्षा उन्हें अपने गृह अंचल ग्वालियर-चंबल अंचल में “श्रीमंत” यानि ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव के समय चुनौती देकर पार्टी को जीत दिलाने की है। हालांकि यह चुनौती उतनी आसान नहीं है जितनी कांग्रेस के बड़े क्षत्रप यानि कमलनाथ-दिग्विजय सिंह समझ रहे हैं। लेकिन वे इस अग्निपरीक्षा में कितने सफल होते हैं यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चल सकेगा, लेकिन यह तो तय है कि वे सिंधिया की सियासी डगर मुश्किल भरी होने वाली जरुर है। अगर उन्हें इलाके के दूसरे बड़े चेहरे चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी का भी पूरा साथ मिल जाता है तो वे सिंधिया के सामने बेहद चुनौती बन सकते हैं। डाक्टर गोविन्द सिंह को नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी देने के पीछे कांग्रेस की रणनीति ग्वालियर-चंबल अंचल में घटे जनाधार को वापस हासिल करने और सिंधिया की बगावत से हुए नुकसान की भरपाई कर पुरानी जीत को दोहराने की है।
सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद से कांग्रेस का इस अंचल में प्रभाव बेहद कम हुआ है। डाक्टर गोविन्द सिंह के अलावा नेता प्रतिपक्ष की दौड़ में सज्जन सिंह वर्मा, बाला बच्चन, विजयलक्ष्मी साधो और केपी सिंह के नाम शामिल थे। केपी सिंह भी उसी अंचल से आते हैं लेकिन वे डाक्टर गोविन्द सिंह की तुलना में कम वजनदार माने जाते हैं। दौड़ में शामिल अन्य विधायक मालवा और निमाड़ अंचल से आते हैं जिसकी वजह से वे इस दौड़ में पिछड़ गए। दरअसल सिंह पार्टी के ऐसे विधायक हैं जो न केवल अब तक विधानसभा चुनावों में अजेय बने हुए हैं, बल्कि राजनैतिक रुप से दबंग और जुझारू होने के साथ ही सुविधाभोगी राजनीति के खिलाफ माने जाते हैं। समाजवादी पृष्ठभूमि के डॉक्टर गोविंद सिंह की पहचान जनता के मुद्दों पर संघर्ष करने वाले राजनेता की है। पार्टी में उन्हें दिग्विजय सिंह का बेहद करीबी माना जाता है। अब उन पर 2018 के आम चुनाव की तरह अंचल की 27 सीटें कांग्रेस के खाते में लाने की बड़ी चुनौती है।
सिंधिया के पार्टी छोड़ने के बाद उपचुनाव में कांग्रेस को इस अंचल में 10 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा जिसकी वजह से अब उसकी इस अंचल में 17 सीटें ही रह गई हैं। इसके अलावा ग्वालियर- चंबल में सिंधिया को चुनौती देने के लिए कांग्रेस को बड़े चेहरे की पहले से ही तलाश थी। वैसे भी सिंधिया जब कांग्रेस में थे, तब भी डाक्टर गोविन्द सिंह को इस क्षेत्र में उनका कट्टर विरोधी माना जाता था। इसके बाद भी वे लगातार 35 साल से विधायक बनते आ रहे हैं। सादा जीवन जीने वाले डाक्टर गोविन्द सिंह जमीनी नेता है। उन्हें जमीनी मुद्दों की पकड़ है। वे सरकार गिरने के बाद से ही नेता प्रतिपक्ष के सबसे मजबूत दावेदार बने हुए थे।
कमलनाथ को नेता प्रतिपक्ष बनाते समय ही अगर यह जिम्मेदारी गोविंद सिंह को दे दी जाती तो आज पार्टी के हालात ज्यादा बेहतर होते। मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कमलनाथ के पास नेता प्रतिपक्ष के साथ ही प्रदेश कांग्रेस की कमान भी बनी हुई थी। इसी वजह से उसके बाद से ही पार्टी में यह मंथन चल रहा था कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष का पद एक ही व्यक्ति के पास नहीं होना चाहिए। पार्टी आलाकमान के बेहद करीबी होने की वजह से कमलनाथ के खिलाफ कोई भी नेता चाहकर भी इस मामले में बोलने को तैयार नही था। इस मामले में जब कमलनाथ ने आगे आकर पद छोड़ने की इच्छा जाहिर की तब कहीं जाकर इस पर फैसला किया जा सका। लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका बेहद अहम मानी जाती है, लेकिन नेताओं में बढ़ती सुविधाभोगी राजनीति की वजह से विपक्ष की आवाज कमजोर होती जा रही है। कई बार तो मिलीभगत की परिस्थितियों की भी बातें सामने आती रहती हैं। इसके बाद भी डाक्टर गोविन्द सिंह को ऐसे दबंग नेता के रूप में जाना जाता है जो जनता के मुद्दे उठाने में पीछे नहीं रहते हैं और न ही उन्हें झुकने पर मजबूर किया जा सकता है। यही नहीं उन्हें प्रभावित भी नहीं किया जा सकता है। कांग्रेस को आज ऐसे ही नेता की तो जनता को भी ऐसे ही प्रतिपक्ष के नेता की जरूरत महसूस की जा रही थी।
डाक्टर गोविन्द सिंह की नियुक्ति के कई सारे निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। खास बात यह है कि वे ग्वालियर-चंबल की सियासत में अपनी अलग पहचान रखते हैं। सिंधिया परिवार के साथ उनकी कभी पटरी नहीं बैठी। फिर चाहे माधवराव सिंधिया रहे हों या ज्योतिरादित्य सिंधिया?
दिखेगी संघर्ष की धार
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कमलनाथ अब संगठन के साथ ही पार्टी स्तर पर चुनावी तैयारियों को लेकर अपनी भूमिका और अधिक प्रभावी ढंग से निभाने के लिए अधिक समय दे पाएंगे। लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष हमेशा जनहित में होता है। कांग्रेस मौजूदा संख्या बल के हिसाब से बेहद मजबूत विपक्ष है। उसे जरूरत थी तो एक विपक्ष की सकारात्मक भूमिका को धार देने और जनता के मुद्दों को सामने लाने वाले की। माना जा रहा है कि डाक्टर गोविन्द सिंह इस कमी को पूरा कर सकते हैं। डाक्टर गोविन्द सिंह को परिवारवाद से दूर रहने वाले नेता के रूप में भी जाना जाता है। उनके 35 साल के विधायक वाले कार्यकाल में परिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में आगे नहीं लाया गया है। वह जब भी सरकार में मंत्री रहे तब भी परिवार के लोगों को सरकारी काम में हस्तक्षेप करने की पूरी मनाही रही। माना जा रहा है कि डाक्टर गोविन्द सिंह के नेता प्रतिपक्ष बनने से चंबल की राजनीति में कांग्रेस से सिंधिया के बाहर जाने के बाद आयी रिक्तता की पूर्ति हो सकती है।
दिग्विजय का कद बढ़ा
डाक्टर गोविन्द सिंह की नेता प्रतिपक्ष के पद पर हुई नियुक्ति के साथ ही दिग्विजय सिंह का कद एक बार फिर बढ़ गया है। इसकी वजह है अब तक पार्टी स्तर पर हुई अधिकांश नियक्तियों में उनका प्रभाव दिखता रहा है। फिर मामला युवक कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष का हो या फिर महिला कांग्रेस का। पार्टी के अधिकांश सहयोगी संगठनों की कमान दिग्विजय समर्थकों के हाथों में ही है। दरअसल प्रदेश की राजनीति में डाक्टर गोविन्द सिंह को भी उनका ही करीबी माना जाता है।
जमीनी नेता की पहचान
उनकी तुलना कांग्रेस की राजनीति में जमुना देवी की तरह जमीनी नेता के रूप में की जाती है। जमुना देवी के नेता प्रतिपक्ष कार्यकाल में विपक्ष की प्रभावी भूमिका को अंजाम देने में डाक्टर गोविन्द सिंह का रोल बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। अब वे स्वयं नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में आ गए हैं तो मध्यप्रदेश में विपक्ष की भूमिका को नया आयाम मिलना तय माना जा रहा है। कांग्रेस में आपसी गुटबाजी की वजह से ही पार्टी को प्रदेश में चुनावी राजनीति में नुकसान होता रहा है। कार्यकतार्ओं को गुटों में बांट कर देखना भी कांग्रेस की बड़ी कमजोरी है। डाक्टर गोविन्द सिंह आम कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा खड़े होते रहे हैं। प्रदेश में सकारात्मक विपक्ष की भूमिका की तलाश थी। डाक्टर गोविन्द सिंह के नेता प्रतिपक्ष बनने से शायद यह तलाश पूरी होगी। जातिवादी राजनीति के इस दौर में हालांकि कुछ लोग इस तरह की बात कह रहे हैं कि जातिगत समीकरण के हिसाब से कांग्रेस में पदों पर नियुक्तियां होनी चाहिए,लेकिन डाक्टर गोविन्द सिंह के मामले में इस तरह की जातीय राजनीति बेमतलब रहने वाली है। रिश्तों के मामले में भी डाक्टर गोविन्द सिंह को कोई सानी नहीं है। पार्टी के नेताओं के साथ ही उनके कई भाजपा नेताओं से भी उनके मधुर संबंध है। वह हमेशा संघर्ष के मुद्दों पर रिश्तों को बीच में नहीं लाते। वे बेहद मुखरता के साथ अपनी बात रखने वाले राजनेता माने जाते हैं। वे सच बात कहने में भी पीछे नही रहते हैं। ऐसे मौके कई बार सामने आए हैं, जब पार्टी के बड़े नेताओं के सामने उन्होंने सच बात कही, जबकि वरिष्ठ नेता उन्हें बात रखने से रोकना चाहते थे, लेकिन इसके बाद भी वे पीछे नही रहे।

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