सोमेश्वर सिंह
आज अखबार की सुर्खियों में भोपाल से एक खबर है। पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल को भोपाल की एक अदालत ने मानहानि के मामले में दोषी पाते हुए अदालत उठने तक की सजा और दस हजार का जुर्माना लगाया है। मामले में फरियादी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तथा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती साधना सिंह थीं। न्याय अंधा होता है यह तो सुना था। लेकिन इस फैसले के बाद पहली बार जाना कि न्याय गूंगा और बहरा भी होता है। भैया भाभी के मानहानि की कीमत अदालत इतना सस्ता कर देगी, ताज्जुब की बात है। सिर्फ दस हजार रूपल्ली के लिए नोट गिनने की मशीन नहीं लगाई जाती। इतने नोट गिनने का काम तो थूक लगाने से ही चल जाता है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार कानून अंधा होता है। इसकी पृष्ठभूमि में यूनानी देवी डिकी की कहानी है। दरअसल डिकी ज्यूस की पुत्री थी। ज्यूस मतलब प्रकाश और ज्ञान का देवता। कानून की इस देवी के हाथ में तराजू तथा आंख में काली पट्टी बंधी होती है। कानून भले अंधा होता हो लेकिन समाज अंधा नहीं होता। वह देखता है, सुनता है और बोलता है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय हरिशंकर परसाई ने कानून पर तल्ख और कालजयी टिप्पणी की थी। उनका कहना था “कानून काना होता है”। वह एक आंख से देखता है। इसलिए आज तक व्यापम घोटाला नहीं दिखा।
भारत की निचली अदालतों से लेकर हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट तक न जाने कितने फैसले आते हैं। कहीं कोई याद नहीं रखता। लेकिन अदालतों की कुछ टिप्पणियां हमेशा जिंदा रहती है। मसलन साठ के दशक में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस आनंद कुमार मुल्ला ने यूपी राज्य बनाम मोहम्मद नईम के मामले में पुलिस को लेकर एक टिप्पणी की थी, और कहा था-“पुलिस अपराधियों का संगठित गिरोह है”जस्टिस मुल्ला की वह टिप्पणी आज 60 साल बाद भी आज जिंदा है।
अभी हाल में मैं एक विवाह समारोह में गया था। वहां वरिष्ठ वकील साथी ने मुझे कॉल किया। मैं गया उन्होंने खड़े होकर बड़े अदब के साथ कुर्सी पर आसीन एक सज्जन से परिचय कराया और कहा इन्हें पहचानते हो। मैंने ना में सिर हिला दिया। उन्हें नागवार गुजरा। उन्होंने कहा यह छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस फलाने है। किसी जमाने में सीधी कॉलेज में पढ़ा करते थे। यहीं पर चीफ ज्यूडिशल मजिस्ट्रेट बन कर भी आ चुके हैं। इनके पिता जी भी सीधी में ही जज थे। मुझे सब कुछ याद हो गया। जस्टिस महोदय कॉलेज के दिनों में पढ़ाकू थे मैं लड़ाकू छात्र नेताओं में था। स्वाभाविक है वे मुझे जानते थे मैं उन्हें नहीं जानता था।
वे सीधी में चीफ ज्यूडिशल मजिस्ट्रेट बन कर आए थे। मैं अपने पत्रकार साथी विजय सिंह के साथ नगर पालिका कार्यालय में सीएमओ शैलेंद्र सिंह के पास बैठा था। अचानक मजिस्ट्रेट साहब आ गए। मैं उन्हें पहचानता नहीं था। ना कुर्सी से उठा और ना ही नमस्कार किया। इस अनजाने और अनचाही घटना को मजिस्ट्रेट साहब ने शायद गंभीरता से ले लिया था। मेरी जिंदगी बड़ी उतार-चढ़ाव वाली और बेतरतीब थी। कभी पत्रकारिता, कभी पॉलिटिक्स तो कभी वकालत। किसी एक मामले में मैं सीजेएम साहब के कोर्ट में अपीयर हुआ। उन्होंने मुझसे आंख नहीं मिलाई। सिर्फ कनखियों से घूर कर देखा। मैं समझ गया कि मामला खारिज होगा। वे जब तक सीधी में रहे उनकी अदालत में मेरे सभी मामले खारिज होते रहे।
इस तरह की घटनाएं किसी भी व्यक्ति के स्वभाव, चरित्र और आचरण का आइना होती हैं। उस जमाने में डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में सिर्फ दो ही गाड़ियां हुआ करती थीं। एक डीजे के पास और दूसरी सीजीएम के पास। सीजेएम की गाड़ी में डीजे को छोड़कर अन्य सभी न्यायाधीश बंगले से कोर्ट और कोर्ट से बंगला आया जाया करते थे। एक दिन सरकारी गाड़ी को लेकर विवाद हो गया। अहम का टकराव था। कि पहले मैं बाद में तू। फिर क्या था सीजेएम साहब की एक अन्य न्यायाधीश के साथ जूतम पैजार हो गई। मामला अखबार की सुर्खियों में आ गया। सीजेएम साहब को तब जाकर आभास हुआ की अदालत से बाहर भी एक समाज है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कामरेड सोमनाथ चटर्जी थे। वे सुप्रीम कोर्ट के एक नामी वकील थे। अपनी आत्मकथा “कीपिंग द फेस” में खुलासा किया है कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें कानून मंत्री पी शिव शंकर के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने का ऑफर दिया था। जिसे उन्होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि इस पर उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। परंतु वही सोमनाथ चटर्जी बाद में यूपीए सरकार में लोकसभा अध्यक्ष बने। अमरीका के साथ परमाणु समझौता मामले में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया और सोमनाथ चटर्जी को लोकसभा अध्यक्ष से इस्तीफा देने के लिए कहा। जिसे उन्होंने साफ मना कर दिया और दलील दी कि लोकसभा अध्यक्ष किसी पार्टी का नहीं होता। हालांकि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया। सांसदों को अयोग्य करार दिए जाने के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें नोटिस दिया था। तब उन्होंने यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट में हाजिर होने से मना कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट अपनी हद में रहे।
कोर्ट की अवमानना के मामले में सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील प्रशांत भूषण ने गांधीवादी रास्ता नो वकील, नो दलील, नो अपील अख्तियार किया। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें एक रुपए के अर्थदंड की सजा सुनाई जिसे जमा करने से उन्होंने मना कर दिया। पूरे देश में सुप्रीम कोर्ट की जग हंसाई हुई। भारत के न्यायिक इतिहास में जब न्यायविदों की बात आती है तब इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस जगमोहन सिन्हा को कैसे विस्मृत किया जा सकता है। जिन्होंने 12 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया था। इसके बदले जनता पार्टी की सरकार ने उन्हें हिमांचल प्रदेश हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस बनाए जाने का ऑफर दिया जिसे उन्होंने साफ मना कर दिया।
सीजेआई रंजन गोगोई जिन्होंने अपने कार्यकाल में अनेक विवादित फैसले सुनाए। जिसमें राफेल सौदे की जांच की मांग करने वाली याचिका को खारिज करना, अयोध्या मामले का विवादित फैसला सुनाना, स्वयं के खिलाफ लगे यौन उत्पीड़न मामले की सुनवाई करना शामिल है। इसी कारण से उन्हें राज्यसभा में मनोनीत करके उपकृत किया गया था। जिसकी देशभर के विपक्षी दलों ने आलोचना की थी। बाद में गोगोई साहब ने अपनी आत्मकथा “जस्टिस फॉर द जज”में लिखा भी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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