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Wednesday, Sep 27, 2023
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विचार

विश्व नागरिक मार्क्स और उनके देशज कुटुम्बी

आज कार्ल मार्क्स का जन्म दिन है।
बादल सरोज
मार्क्स के खिलाफ जब कहने को कुछ नहीं मिलता तब उनके विदेशी होने का “आरोप” उछाला जाता है । मजे की बात ये है कि यह बात जर्मनी, जहां वे जन्मे और मार्क्स बने, में भी कही जाती है । हिटलर ने उनके बारे में यही कहा, उसके वंशज भी यही कहते हैं ।
2018 में 5 मई को उनकी 200 वीं सालगिरह पर उनके जन्मस्थान ट्रियेर में उनकी मूर्ति लगाने की बात उठी तो वहां भी यही बात कही गयी । बाद में ट्रियेर म्युनिसिपल कौंसिल ने 42 – 11 के बहुमत से यह मूर्ति लगाना स्वीकार किया ।
कमाल की बात ये है कि यह बवाल सबसे ज्यादा वे ही उठाते है जिनके खुद के कुलगोत्रों का या तो अता पता नहीं है या लापता है या जो पता है उसको बताने में उन्हें संकोच होता है ।
मुसोलिनी से नेकर, हिटलर से ध्वज प्रणाम और फासिस्टों से अफ़वाह पारंगतता, संगठन शैली और नाज़ियों से बर्बरता लेकर आये नख से शिख तक शुद्ध अभारतीय संघी भी मार्क्स के बारे में यही प्रलाप करते हैं । ये वे ही बटुक हैं जो इन दिनों भारत की हर सम्पदा को विदेशियों को सौंपने, भारत की संपत्तियों को लूटने वालों को विदेशों में बसाने और कभी अमरीका तो कभी पाकिस्तान के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास के “पुण्य कर्म” में लगे हैं।
विज्ञान, तकनीक, विचार मनुष्यता की खोज है । उसकी कोई भौगौलिक सीमा हुई होती तो सोचिये जीवन, उत्पादन, शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर उद्योग, व्यापार, परिवहन, संचार आदि इत्यादि मामलों में कहां होती दुनिया और हम ।
देश और परदेस की गुहार लगाने वाले पूंजी की वैश्विकता पर बल्ले बल्ले और बदलाव के विचार पर पासपोर्ट वीजा की गुहार लगाकर अपना पाखण्ड और अज्ञान खुदई उजागर कर देते हैं ।
संस्कृत_में_श्लोक है ;
“विद्वत्वंच नृपत्वंच नैव तुल्यं कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।।”

मोटा_भावार्थ है-
विद्वत्ता और राजत्व की तुलना कभी नहीं हो सकती। राजा सिर्फ अपने देश में पूजा जाता है किन्तु विद्वान् सभी जगह सम्मान पाता है । इस मायने में जितने बड़े विश्व नागरिक कार्ल मार्क्स हैं उतना बड़ा कोई और शख़्स नहीं है।
मार्क्स के देशज कुटुम्बी
मार्क्स के वैचारिक कुटुम्बी दुनिया भर में हैं ; भारत में भी हैं।
मार्क्स ने कोई आविष्कार नहीं किया था । उन्होंने सिर्फ खोज की थी । अनुसंधान किया था । उन्होंने इस सन्दर्भ में स्वयं को द्वंदवाद के लिए हीगेल, भौतिकवाद के लिए फायरबाख का ऋणी बताया है जो बकौल मार्क्स “सर के बल खड़े थे उन्हें पैरों के बल खड़ा किया गया है ।” अपनी तीसरी खोज अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांन्त के लिए उन्होंने इंग्लैंड के कारखानों के अनेक मजदूरों, मजदूर नेताओं को श्रेय दिया है । जिन्होंने तथ्य जुटाने में उनकी मदद की ।
यह संयोग था कि मार्क्स यूरोप में जन्मे । उन्हें जो दार्शनिक परम्परा सहज उपलब्ध हुई वह ग्रीक-रोमन, जर्मन, फ्रांसीसी और आंग्ल थी । यदि वे पृथ्वी के पूरब में जन्मे होते तो स्थिति शायद कुछ और ही होती,
जैसे;
द्वंद्वात्मकता (Dialectics) के लिए उन्हें हीगेल के पास नहीं जाना पड़ता । भ्रूण रूप में वह उन्हें बुद्ध के क्षणिकवाद और प्रतीत्य समुत्पाद और पुरानी वस्तु से नयी बनने तथा निरंतर अस्तित्व में आने की प्रक्रिया के सिद्धांत में मिल जाता। वर्धमान महावीर के संशयवाद-स्यादवाद- में मिल जाता।
भौतिकवाद तो उन्हें पर्याप्त प्रचुरता में पूरब के दार्शनिकों में मिल जाता। अध्यात्मवाद के आधुनिक थोक विक्रेता डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के शब्दों में ” भारत का भौतिकवादी दर्शन अत्यंत प्राचीन है, यह उतना ही प्राचीन है जितना भारतीय दर्शन, यह काफी विकसित भी था – विज्ञान की तात्कालिक सीमाओं से काफी आगे बढ़ा हुआ था।”
जैसा कि कुछ धूर्त समझाते हैं और मूर्ख मानते हैं: भौतिकवाद का मतलब उपभोक्तावाद, देहसुख, भोगविलास या ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत’नहीं होता। यह सब तो पतित पूंजीवाद में होता है। जिसे वह आध्यात्म के झीने पर्दे और आसारामों की अक्षौहिणी सैनाओं से ढांपने की कोशिश करता है।
दर्शन की भाषा में भौतिकवाद का अर्थ है भौतिक जगत और पदार्थ को सत्य मानना । उसे किसी अज्ञात और अदृश्य, अबूझ और रहस्यमयी शक्ति द्वारा रचा गया नहीं मानना। यह मानना कि मूल में पदार्थ है बाकी सब उसके भिन्न भिन्न रूप । भारतीय दर्शन मुख्यतः इस तरह से सोचने वालों का ही है । लोकायत, वैशेषिक, न्याय, सांख्य, बुद्ध, जैन सहित बहुमत इसी विचार का है ।
इनमे से कुछ ही का जिक्र करें तो;
ई.पू. 6ठी शताब्दी के कपिल ऋषि कहते हैं “जीवन, शक्ति, विचार, चेतना की उपज पदार्थ से हुई ।” ई.पू. 6 से 10वीं सदी के बीच हुए कणाद ऋषि कहते हैं “संसार अस्तित्वमान है । यह छोटे छोटे कणों (अणु, परमाणुओं) से मिलकर बना है।” यह डेमोक्रेट्स से भी बहुत पहले की बात है । ऋषि गौतम_अक्षपाद कहते हैं “तार्किक प्रमाणों के जरिये ही ज्ञान तक पहुंचा जा सकता है।”
ऋग्वेद के परमगुरु बृहस्पति कहते हैं कि “पदार्थ परमसत्य है। मृत्यु के बाद जीवन नहीं होता।” गीता में कृष्ण ने जिन्हें सबसे बड़ा ऋषि बताया है वे भृगु और भी बेबाक तरीके से कहते हैं: “पदार्थ परमसत्य है। सभी की उत्पत्ति पदार्थ से हुई है। देवताओं को खुश करने के लिए कर्मकाण्ड और बलि मूर्खता है।” श्वसनवेद उपनिषद कहता है : “पदार्थ सत्य है । संसार से परे कुछ भी नहीं है, न नर्क न स्वर्ग । प्रकृति ही नियन्ता है प्रकृति ही संहारक।”
चाणक्य के मुताबिक़ लोकायत (और चार्वाक) भारत के सर्वप्रथम दर्शनों में से एक है । उनकी हिदायत थी कि राजा को लोकायत और सांख्य अवश्य पढ़ने चाहिए ।
आदि वैद्य चरक कहते हैं; ” जीवन प्राथमिक तत्वों के विशिष्ट योग का परिणाम है। मनुष्य समय की उपज है और विभिन्न तत्वों के उचित सम्मिश्रण का परिणाम है।” और यह भी कि “सत्य वही है जिसे सिद्ध किया जा सके ।”
रामायण में जाबालि-राम संवाद, महाभारत में भीष्म-युधिष्ठिर और भीष्म-द्रौपदी संवाद इसी धारा के प्रवाह हैं । उदाहरण भर के लायक उल्लेख किए जा रहे हैं – यह सतत प्रवाह है।
मार्क्स भौतिकवाद के लिए फायरबाख से पहले इन सब के पास आते ।
मार्क्स को,बिना जाने, ठुकराने का मतलब इन सब को ठुकराना और नकारना है । विश्व भर के अपने पुरखों की सोचने समझने की काबलियत का अपमान और अपने “देशज” दर्शन की गौरवशाली विरासत को धिक्कारना है ।
अलबत्ता पोलिटिकल इकॉनोमी (राजनीतिक अर्थशास्त्र) के लिए मार्क्स को लन्दन ही जाना पड़ता। क्योंकि रेगिस्तान में बैठकर समंदर की लहरों की शक्ति से बिजली नहीं बनाई जा सकती। आधुनिक पूंजीवादी औद्योगिक अर्थव्यवस्था तब तक वहीं थी ।
(लेखक अभा किसान सभा के उपाध्यक्ष और लोकजतन के सम्पादक हैं। यह लेख उनकी फेसबुक फेसबुक वाल से है।)

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