सोमेश्वर सिंह
मैंने पिछले पांच साल से टीवी देखना बंद कर दिया है। टीवी देखना बंद क्यों किया बताने की जरूरत नहीं। आप सभी जानते हैं। सिनेमा, मनोरंजन और समाचार के नाम पर अधिकांश जो दिखाया जाता है, वह देखने के लायक नहीं।आजकल टीवी के कार्यक्रम ब्रांडिंग, इवेंट और हेट से लवरेज रहते हैं। हमारे प्रधान सेवक विदेश यात्रा में डिप्लोमेसी नहीं मॉडलिंग करने जाते हैं। भारत में छप्पन इंच का सीना दिखाते हैं और विदेश में पत्रकारों के सवाल से डरते हैं। इधर भारत के खबरिया चैनल प्रधान सेवक को महिमामंडित कर उनका यशोगान करने लगते हैं।
बड़ा सिंपल फंडा है। आप घर के लेट्रिन का टैंक साफ कराते हैं। नाली साफ कराते हैं। घर में किसी तरह की साफ सफाई करवाते हैं तो स्वीपर को पैसा देते हैं। पैसा देकर आप घर में कचरा नहीं लाते। ठीक इसी तरह टीवी में चलने वाले कार्यक्रम है। जो किसी कचरा से कम नहीं। इसलिए हम और आप पैसा देकर अपने दिमाग में कचरा क्यों भरें। मनुष्य के शरीर में सबसे महत्वपूर्ण अंग मस्तिष्क है। जो सभी इंद्रियों को नियंत्रित करता है। ज्ञान, विचार, कल्पनाएं सभी दिमाग में पैदा होती है। टीवी में आप पैसा देकर खेल, फिल्म, सीरियल देखते हैं।अभिनय करने वालों को हीरो बना देते हैं। वही हीरो मल्टीनेशनल कंपनी से पैसा लेकर प्रोडक्ट का विज्ञापन करते हैं। और आप उसी प्रोडक्ट को खरीदते हैं। इसी विज्ञापन की दुनिया ने मध्यम वर्गीय परिवारों को कंगाल कर दिया है। इन दिनों अखबार भी टीवी के ढर्रे पर चल पड़ा है।
अखबार में हाकर से लेकर संपादन तक का काम मैंने किया है। इसलिए अखबारों से बेइंतहा मोहब्बत करता हूं। आज भी मेरे पास चालीस साल पुरानी अखबारों की कतरने मौजूद है। जिनके एक-एक शब्दों में फूलों की ताजगी है। यादों का खजाना है। समय और समाज की धड़कनें हैं। जो कभी बासी नहीं होंगी। छोटी बड़ी कोई भी खबर अखबार में छप जाए तो उसकी अपनी एक विश्वसनीयता थी। अपराध या अनैतिक कामों में लिप्त व्यक्ति को समाज हिकारत की नजर से देखता था। एक तरह से उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता था। लेकिन अब वही व्यक्ति राजनीति और समाज में स्थापित है। अखबार बाहुबलियों के प्रचार तंत्र का साधन बन गए हैं।
सामाजिक जीवन में अखबार बड़े काम का है। सूचना तंत्र का एक सशक्त माध्यम है। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी अखबार के बिना अधूरी है। सुबह जागने से लेकर रात सोने तक अखबार उपयोगी है। उस जमाने में एक अखबार को मोहल्ले भर के लोग पढ़ा करते। मेलजोल बढ़ता, मित्र बनते। बासी हो जाए तो नैपकिन का काम करता। प्रसाद की पुड़िया बनाने से लेकर बच्चों का गू मूत तक उठाने के काम आता। कभी बिछोने का काम करता, तो कभी कपड़ा, जूता, चप्पल लपेटने के काम आता। आज भी मध्यम वर्गीय परिवार की महिलाएं अखबार को रोटी के डिब्बे में नेपकिन की तरह इस्तेमाल करती हैं या फिर अखबार में लपेट कर पार्सल करने का काम लेती है। पार्क, मुसाफिरखाना से लेकर यात्रा तक का अखबार साथी था। रद्दी अखबार जीविका का साधन था। ठेला वाले खरीदकर ले जाते। कबाड़ी को बेंच देते। रद्दी अखबार से लिफाफा भी बनते थे। जिसमें दुकानदार किराना सामग्री रखकर ग्राहकों को देते थे। अखबार की रीसाइक्लिंग हो जाती थी। वह प्रकृति और पर्यावरण का मित्र था।
अखबार पान चाय के ठेले में बिक्री बढ़ाने का साधन था। ग्राहक अखबार पढ़ने की लालच में ठेले में जाते। एक अखबार को चार-चार पाठक एक साथ दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे से पढ़ा करते थे। अखबार के सामूहिक वाचन का एक अलग ही आनंद था। मनुष्य के दिमाग में ब्लैक एंड व्हाइट अखबार जो स्थाई भाव छोड़ता था, वह आजकल टीवी के बहुरंगीय स्क्रीन में कहां। पलक झपकते ही दृश्य बदल जाता है।अखबार के ग्राहक भोर से ही घर के दरवाजे, पोर्च या लान में बैठकर बेसब्री के साथ हाकर का इंतजार करते हैं। हाकर बड़े अदब के साथ ग्राहक के हाथ में अखबार थमा कर जाता। आजकल अखबार का इंतजार नहीं करना पड़ता। वे आम की तरह टपकते हैं। छत या लान में टप्प की आवाज आई तो समझो अखबार आ गया। फिलहाल अखबारों से भी मोह भंग हो रहा है। लेकिन छोड़ा नहीं जा रहा है। क्योंकि-
हम तुमसे मोहब्बत करके सनम,
हंसते भी रहे रोते भी रहे,
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)