राकेश अचल
आज का युग गिरावट का युग है।आप इसे कलियुग का दूसरा पर्याय कह सकते हैं। आज के दौर में रूपये से लेकर सब कुछ गिर रहा है। आप जिस-चीज के न गिरने की कल्पना कर रहे होंगे,वो भी शायद चुपके से कहीं गिर चुकी होगी। क्योंकि गिरना किसी के हाथ में नहीं होता। होता तो सबसे पहले आदमी न गिरता,आदमी न गिरता तो सियासत न गिरती। सियासत न गिरती तो धर्म न गिरता। धर्म न गिरता तो राजधर्म न गिरता।
गिरने की खबरें अब चौंकाती नहीं हैं। रोज कुछ न कुछ गिर जाता है। अब डालर के मुकाबले हमारा रुपया गिर कर कहां से कहां पहुँच गया ? रुपया गिरा तो उसके देखा-देखी सोना भी गिर गया। सोना गिरा तो चांदी कहां मानने वाली थी,वो भी गिर गयी। सोना-चांदी गिरा तो शेयर बाजार ने भी अपने आपको गिरा लिया। दरअसल आजकल गिरने की होड़ मची है। सब ज्यादा से ज्यादा गिरने की कोशिश में लगे हैं। इस होड़ से केवल मंहगाई अलग है। महंगाई को गिरने में मजा नहीं आता। या यूं समझिये महंगाई को गिरावट पसंद नहीं है, इसलिए महंगाई हमेशा बढ़ती है,आसमान को छूना चाहती है।
हमारे देश की राजनीति में एक सुषमा स्वराज थीं। वे अक्सर कहतीं थीं कि – ‘जब रुपया गिरता है तो देश का स्वाभिमान गिरता है। देश का नेतृत्व गिरता है’। आज सुषमा जी नहीं हैं। उन्होंने ये बात तब के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के लिए कही थी, वे यदि आज होतीं तो खामोश रहतीं, क्योंकि आज के गिरावटी युग में किसी को बोलने की इजाजत है ही नहीं। मौन रहना ही आज का सबसे बड़ा धर्म है। बोलना देशद्रोह हो। आप इसे राजद्रोह भी कह सकते हैं,गनीमत है कि देश की सबसे बड़ी अदालत ने राष्ट्रद्रोह की धारा 124 [ ए ] को फिलहाल स्थगित सा कर दिया है।अर्थात अंतिम फैसला होने तक आप यदि बोलेंगे तो आपके खिलाफ देशद्रोह या राजद्रोह का मुकदमा कायम नहीं किया जा सकेगा।
आप यकीन मानिये कि देश में जब-जब गिरावट की बात चलती है, तब-तब मुझे अपने चंबल में जन्मे देश के सबसे ज्यादा मुखर कवि नरेश सक्सेना की याद आती है। उन्होंने गिरने के बारे में बहुत पहले एक वैज्ञानिक कविता लिखी थी। गिरावट को समझने के लिए किसी किताब को खोलने की जरूरत नहीं। किसी बाबा का प्रवचन सुनने की जरूरत नहीं। आप केवल मेरी तरह नरेश सक्सेना की कविता पढ़ लीजिये। सक्सेना जी लिखते हैं कि –
चीज़ों के गिरने के नियम होते हैं!
मनुष्यों के गिरने के
कोई नियम नहीं होते।
लेकिन चीज़ें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरने के बारे में
मनुष्य कर सकते हैं
बचपन से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो
*
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो
लिफ़ाफ़े में बचे रहो, यानी
आँखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो, यानी
शब्दों में बचे रहो
अर्थों में गिरो
*
यही सोच कर गिरा भीतर
कि औसत क़द का मैं
साढ़े पांच फ़ीट से ज़्यादा क्या गिरूंगा
लेकिन कितनी ऊंचाई थी वह
कि गिरना मेरा ख़त्म ही नहीं हो रहा
*
और सचमुच गिरना खत्म नहीं हो रहा है। नरेश सक्सेना की कविता भी खत्म नहीं हो रही। सबके साथ कविता भी कहीं न कहीं गिरी है लेकिन बाजार से कम गिरी है,आदमी से तो बहुत ही कम गिरी है। गिरे हुए माहौल में ऊंची कविता किसी के क्या काम आ सकती है ? लेकिन नरेश सक्सेना की कविता ये काम करती है। वे अपनी बात कहते हैं कि –
चीज़ों के गिरने की असलियत का पर्दाफ़ाश हुआ
सत्रहवीं शताब्दी के मध्य,
जहां, पीसा की टेढ़ी मीनार की आख़िरी सीढ़ी
चढ़ता है गैलीलियो, और चिल्ला कर कहता है—
“इटली के लोगों,
अरस्तू का कथन है कि भारी चीज़ें तेज़ी से गिरती हैं
और हल्की चीज़ें धीरे-धीरे
लेकिन अभी आप अरस्तू के इस सिद्धांत को ही
गिरता हुआ देखेंगे
गिरते हुआ देखेंगे, लोहे के भारी गोलों
और चिड़ियों के हल्के पंखों, और काग़ज़ों को
एक साथ, एक गति से
गिरते हुए देखेंगे
लेकिन सावधान
हमें इन्हें हवा के हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा…”
और फिर ऐसा उसने कर दिखाया
गिरावट के दौर में अब बारी आपकी है। आपको भी कुछ कर दिखाना है। अब जरा सी भी देर नुकसानदेह हो सकती है। नुकसान तो हो ही रहा है। किसानों का नुकसान हो चुका है।दुकानदारों का नुकसान हो चुका है। मजूरों का नुकसान हो चुका है। कौन है जिसका नुकसान नहीं हुआ ? आप किसी को जानते हों तो बताएं ! मैं तो ऐसे किसी आदमी को नहीं जानता जिसका नुकसान न हुआ हो। सबसे ज्यादा नुकसान तो उसका हुआ है जिसे आप आम आदमी कहते हैं।उसका आटा गीला है। सात साल में सत्रह से चालीस रूपये किलो के भाव से मिल रहा है। तेल महंगा हो गया है और तो और रसोई में आग पैदा करने वाली गैस हजार रूपये कि पार जा चुकी है। लेकिन आम आदमी असहाय है।
गिरने कि इस अविरल क्रम में भी नरेश सक्सेना के पास गिरने के अनेक तरीके हैं जो नुकसानदेह नहीं हैं। उन्हें समझिये,अपनाइये और गिरने से होने वाले नुकसान को कम से कम कीजिये।नरेश जी कहते हैं कि –
चार सौ बरस बाद
किसी को कुतुबमीनार से चिल्लाकर कहने की ज़रूरत नहीं है
कि कैसी है आज की हवा और कैसा इसका हस्तक्षेप
कि चीज़ों के गिरने के नियम
मनुष्यों के गिरने पर लागू हो गए हैं
और लोग
हर क़द और हर वज़न के लोग
यानी
हम लोग और तुम लोग
एक साथ
एक गति से
एक ही दिशा में गिरते नज़र आ रहे हैं
इसीलिए कहता हूं कि ग़ौर से देखो, अपने चारों तरफ़
चीज़ों का गिरना
और गिरो
गिरो जैसे गिरती है बर्फ़
ऊंची चोटियों पर
जहां से फूटती हैं मीठे पानी की नदियां
*
गिरो प्यासे हलक़ में एक घूंट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए
गिरो आंसू की एक बूंद की तरह
किसी के दुख में
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिए जगह ख़ाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत
“कि जहां पत्तियां नहीं झरतीं
वहां वसंत नहीं आता”
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुए
इस गिरावटी युग में अब मिलजुलकर बर्फ की तरह पहाड़ों पर गिरने कि कोई दूसरा विकल्प बचा नहीं है। तय आपको करना है कि कौन ,कब ,कैसे और कहां गिरे। गिरकर ही उठने की शुरूआत होती है। मैंने कविवर नरेश सक्सेना से इजाजत लिए बिना उनकी कविता का इस्तेमाल आप सबके लिए कर लिया है। इसके लिए उनसे क्षमा मांग लूंगा। लेकिन आज यही एक कविता है जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। आज मैंने किसी को न कोसा है,न किसी की स्तुति की है। केवल कविता को दोहराया है। आप भी चाहें तो ये काम कर सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)