सोमेश्वर सिंह
बनारस के विवादास्पद ज्ञानवापी मस्जिद की आड़ में सरकार ने 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी। जब भी चुनाव आते हैं तब ही इस तरह के धार्मिक मसलों को हवा दी जाती है। स्वाभाविक बात है कि जो भी शासक होगा, वह जिस धर्म को मानता होगा, अपने धर्म के उपासना स्थल का निर्माण करायेगा। मुगलों के आने के पहले हिंदुस्तान में कोई मस्जिद नहीं थी। अंग्रेजों से पहले कोई गिरजाघर नहीं था। भारत के इतिहास को जितना खंडित और कलंकित अंग्रेजों ने किया उतना किसी भी विदेशी आक्रांता ने नहीं किया। अंग्रेज भारतीय संपदा को लूटकर इंग्लैंड ले गए। बौद्ध धर्म भी हिंदू धर्म से पैदा हुई एक शाखा है। बौद्ध धर्मावलंबी मठ, मंदिर और उस स्तूपों को सबसे ज्यादा हिंदू धर्माचार्यों ने खंडित किया आखिर क्यों?
भारत में हिंदू मुसलमान सदियों से मिलजुल कर रहते आए हैं। दोनों समुदाय के बीच अंग्रेजों द्वारा “फूट डालो राज करो नीति” के तहत दरारें पैदा की गई। धर्म के नाम पर आपस में लड़ाया गया। कट्टर हिंदूवादी संगठनों ने अंग्रेजों का साथ दिया। काशी विश्वनाथ मंदिर के निर्माण का हजार साल पुराना इतिहास है। समय-समय पर हिंदू राजाओं ने उसका निर्माण, पुनर्निर्माण कराया। मंदिर से ही लगा हुआ ज्ञानवापी परिसर था। कट्टर मुगल शासक औरंगजेब ने 1669 में मंदिर परिसर से लगे परिसर में मस्जिद बनवायी थी। ज्ञानवापी परिसर का निर्माण 1823 में ग्वालियर महारानी बैजाबाई ने कराया तथा मस्जिद निर्माण के लगभग डेढ़ सौ साल बाद 1830 में महाराजा नेपाल ने वहीं पर विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित की। कहने का आशय यह है कि मस्जिद पहले बनाई गई और नंदी बाबा बाद में आए। दोनों के कालखंड में डेढ़ सदी का अंतर है। सबसे पहले अंग्रेजों ने 1883- 84 में ज्ञानवापी को मस्जिद का दर्जा दिया तथा बतौर मस्जिद राजस्व अभिलेखों में दर्ज करवाया। उसी के बाद अदालत ने 1937 में एक मामले की सुनवाई करते हुए ज्ञानवापी को मस्जिद के तौर पर स्वीकार किया।
सबसे पहले विश्व हिंदू परिषद ने 1984 में ज्ञानवापी मस्जिद के स्थान पर मंदिर बनाने का अभियान चलाया। अयोध्या के विवादित बाबरी ढांचे को लेकर पूरे देश में धार्मिक उन्माद फैलाया गया। हिंसा हुई। मारकाट होने लगी। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने संसद में उपासना स्थल 1991 का कानून बनाया। जिसमें 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म में बदले जाने पर पाबंदी लगा दी। इस तरह के विवादों को न्यायालय की अधिकारिता से बाहर कर दिया। अयोध्या के मामले में बीजेपी, आरएसएस तथा वीएचपी को मिली आशातीत सफलता के बाद नारा दिया गया “अब काशी मथुरा की बारी है”। इसी से प्रेरित होकर 1991 में हिंदू पक्ष ने अदालत में याचिका दायर की तथा ज्ञानवापी मस्जिद और संपूर्ण परिषद के सर्वेक्षण तथा उपासना की मांग रखी जिसे बाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया।
1998 में मामला पुनः गरमाया। ट्रायल कोर्ट ने फिर से मस्जिद के सर्वे की अनुमति दी। जिसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया। किंतु 2018 में मामले में तब नाटकीय मोड़ आया जब सुप्रीम कोर्ट ने स्थगन आदेश की वैधता सिर्फ 6 माह के लिए निर्धारित कर दी। वाराणसी कोर्ट द्वारा मामले की सुनवाई फिर से शुरू कर दी गई। 2021 में महिलाओं ने मस्जिद परिसर स्थित गौरी मंदिर में पूजा करने की अनुमति तथा सर्वेक्षण कराए जाने की मांग की। तब तक मामला फास्ट ट्रैक कोर्ट के सुपुर्द कर दिया गया था। और अदालत ने ज्ञानवापी मस्जिद के पुरातात्विक सर्वेक्षण की मंजूरी दे दी।
कोर्ट के आदेश पर नियुक्त कमिश्नर ने सर्वेक्षण का कार्य सोमवार को पूरा कर लिया है। अभी तक सर्वे रिपोर्ट न्यायालय को नहीं सौंपी गई है। कोर्ट किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है। बावजूद इसके भी जल्दबाजी में दोनों पक्ष अपने-अपने दावे कर रहे हैं। हिंदू पक्ष ने मस्जिद के एक हिस्से में वज़ू करने की जगह बने छोटे से तालाब में शिवलिंग मिलने का दावा किया है। वकील विजय सिंह ने बताया कि सर्वे में 3 फीट ऊंचा पत्थर मिला है। मुस्लिम पक्ष इसे फव्वारा बता रहा है। हिंदू पक्ष के वकील मदन मोहन यादव दावा करते हैं कि नंदी का चेहरा शिवलिंग की ओर था। विश्व हिंदू परिषद का कहना है वहां पहले भी मंदिर था आज भी है।
संवैधानिक पद पर बैठे उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने तो हद ही कर दी। ट्वीट कर कहा बुद्ध पूर्णिमा पर ज्ञानवापी में बाबा महादेव के प्रकटीकरण ने सनातन हिंदू परंपरा को पौराणिक संदेश दिया है। शिवलिंग की आकृति होना, शिवलिंग की तरह दिखना और प्रामाणिक तौर पर शिवलिंग ही होना। तीनों पृथक पृथक तथ्य हैं। दूसरी तरफ कोर्ट कमिश्नर विशाल सिंह ने बताया कि सर्वे में मिले तथ्यों की रिपोर्ट संभवतः मंगलवार को कोर्ट में पेश की जाएगी। फिलहाल कोर्ट के आदेश पर स्थानीय प्रशासन ने सर्वेक्षण स्थल को सीज कर दिया है। सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी है। फिलहाल यह मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंच गया है। जहां विवादित स्थल की एएसआई से जांच कराने के वाराणसी के सिविल जज के आदेश को चुनौती दी गई है। और कहा गया है कि केंद्रीय पूजा स्थल अधिनियम 1991 के कारण यह मामला सिविल कोर्ट के दायरे से बाहर होने और यथास्थिति बनाए रखने को चुनौती दी गई है जिसमें मामला 20 मई तक टाल दिया गया है।
इस संवेदनशील मुद्दे पर सबसे ज्यादा गैर जिम्मेदार हमारा मीडिया है, जिसने कोर्ट के बगैर किसी निष्कर्ष के ही फैसला सुना दिया। प्रिंट मीडिया में ज्ञानवापी परिसर में शिवलिंग मिलने का दावा किया जा रहा है। आज तक न्यूज़ चैनल ने तो एक्सक्लूसिव शिवलिंग की तस्वीर भी जारी कर दी। इस मामले पर जल्दबाजी घातक होगी। राजनेता हो या मीडिया दोनों को धैर्य संयम के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन करना चाहिए। इस तरह के आचरण से दोनों समुदायों के बीच नफरत पैदा होगी। इस नाजुक मामले पर मीडिया ट्रायल ना करें तो अच्छा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)