राकेश अचल
देश गंभीर जल संकट के बजाय दिल्ली के उप राज्यपाल पद से इस्तीफा देने वाले बैजल साहब पर बहस कर रहा है। अनिल बैजल ने निजी कारणों से अपने पद से इस्तीफा दिया है इसलिए कोई इस पर उंगली नहीं उठा सकता कि वे निजी कारण क्या थे? बैजल ने दिल्ली के उप राज्यपाल के रूप में लम्बी पारी खेली और उन्हें जिस मकसद से तैनात किया था उसे उन्होंने बखूबी निभाया।
दिल्ली को जानने वाले जानते हैं कि दिल्ली में उप राज्यपाल क्यों नियुक्त किया जाता है? दिल्ली में एक निर्वाचित सरकार है लेकिन दिल्ली केंद्र के अधीन है इसलिए अंग्रेजी राज व्यवस्था की तर्ज पर यहां केंद्र सरकार का एक प्रतिनिधि उप राज्यपाल के रूप में काम करता है। हालांकि यदि वो न भी हो तो भी दिल्ली का काम चल सकता है लेकिन दिल्ली में बैठकर देश पर हुकूमत करने वालों का काम बिना उप राज्यपाल के नहीं चलता। जब तक दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिलता,उसे उप राज्यपाल से भी मुक्ति नहीं मिल सकती।
दिल्ली इस समय देश के दूसरे हिस्सों की तरह गंभीर जल संकट से जूझ रही है,प्रदूषण ने दिल्ली की नाक में दम कर रखा है किन्तु दिल्ली को बहस करना पड़ रही है उप राज्यपाल पर। दिल्ली के साथ ये बर्ताव आज से नहीं युगों से होता आया है। दिल्ली के दिल में क्या है ये जानने की कोशिश कोई नहीं करता। दिल्ली में उप राज्यपाल कौन होगा,कौन नहीं ये दिल्ली की जनता से नहीं पूछा जाता,ये सब बड़ी दिल्ली के लोग करते हैं ताकि वो चुनी हुई सरकार की नाक में नकेल डालने का काम मुस्तैदी से करता रहे।
उप राज्यपाल नाम की संस्था देश में जहाँ भी सरकार की नाक में दम करने की जरूरत होती है वहां सक्रिय कर दी जाती है। बकाया राज्यों में उसका नाम राज्यपाल होता है। दिल्ली की तरह जम्मू-कश्मीर में भी इन दिनों वर्षों से जनता की कोई सरकार नहीं है। वहां का भाग्य विधाता उप राज्यपाल ही है। उप राज्यपाल जनाकांक्षाओं को नहीं बल्कि अपने आकाओं की आकांक्षाओं को समझता है,उन्हें पूरा करता है,और हर हाल में पूरा करता है। अंग्रेजों के जमाने में जैसे रियासतों में रेजिडेंट होते थे वैसे ही आजाद भारत में राज्यपाल और उप राज्यपाल होते हैं।
स्वदेशी का राग अलापने वाली भाजपा ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटा दी लेकिन राज्यपाल और उप राज्य पाल की व्यवस्था को हाथ तक नहीं लगाया, हालाँकि ये व्यवस्था उन्हीं नेहरू के जमाने से चली आ रही है जिनके नाम लेने मात्र से आजकल ‘अठेंन’ हो जाती है। देश में राज्यपाल हों या उप राज्यपाल हमेशा से केंद्र के इशारे पर कथक कली करते देखे गए हैं। एक जमाने में जगमोहन का बड़ा नाम था। आजकल धनकड़ का बड़ा नाम है। नजीब जंग ने भी खूब नाम कमाया। बैजल साहब भी नाम कमाने में पीछे नहीं रहे। इन लोगों को नाम कमाने के लिए ज्यादा कुछ करना ही कहाँ पड़ता है? राज्यपाल हो या उप राज्यपाल बस जनता के आदेश से यानि जनादेश से बनी सरकार की आँख में किरकिरी पैदा करने के लिए रखे जाते हैं।
बहरहाल बात लौट फिर कर दिल्ली पर आती है। लोग नए उप राज्यपाल के नाम को लेकर अटकलें लगा रहे हैं। क्योंकि आने वाले दिनों में दिल्ली को दिल्ली से लड़ना है। जनादेश से मुख्यमंत्री बने अरविंद केजरीवाल को केंद्र के प्रतिनिधि उप राज्यपाल का मुकाबला करना होगा, दरअसल इन दिनों केजरीवाल और उनकी पार्टी ही भाजपा के लिए किरकिरी साबित हो रही है, हालांकि उसकी छवि भाजपा की ‘बी’ टीम जैसी है। केजरीवाल ने दिल्ली के बाद पंजाब को जीता है और अब वे गुजरात में रात बिताना चाहते हैं सरकार बनाकर। जहाँ भाजपा सरकार नहीं बना पाती,वहां केजरीवाल के लिए सरकार बनाना आसान हो जाता है।
केजरीवाल को गुजरात में धमाचौकड़ी करने से रोकने के लिए दिल्ली में ही रोकने की जरूरत है और ये जरूरत तभी पूरी हो सकती है जब दिल्ली में बैजल जैसा खुरखेंच करने वाला कोई उप राज्यपाल हो। उप राज्यपाल पद की जिम्मेदारी नौकरशाह बेहतर तरीके से निभाते हैं लेकिन नेता भी इसमें पीछे नहीं हैं। जम्मू-कश्मीर में मनोज सिन्हा ने ये साबित कर दिखाया है,मनोज जी को बनना था उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री लेकिन नसीब ने साथ नहीं दिया तो बना दिए गए बिखंडित जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल।
बहरहाल दिल्ली में कौन आएगा और कौन नहीं ये हमारी चिंता नहीं है। ये चिंता केंद्रीय मंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की है। हमारी चिंता तो ये है कि दिल्ली को पानी भरपूर मिलेगा या नहीं ?
आप जानते ही हैं कि इस देश की चिंताओं में वर्तमान से ज्यादा अतीत शामिल हो गया है। औरंगजेब के जमाने में किये गए कुकर्मों की सजा आज देने की कोशिश की जा रही है। आज के औरंगजेब, कल के औरंगजेब द्वारा की गयी तोड़फोड़ का बदला फिर से तोड़फोड़ कर लेना चाहते हैं,ले भी रहे हैं। औरंगजेब केवल कोई बादशाह या चौकीदार का नाम नहीं बल्कि एक मानसिकता का नाम है। जो हर युग में ज़िंदा रहती है। बने-बनाये को तोड़िये,नया बनाइये ,भले ही नीव में किसी और की आस्थाएं जमीदोज की गयीं हों।औरंगजेब की खासियत ये है कि वो औरंगजेब से ही सबक नहीं सीखता। औरंगजेब हर युग में औरंगजेब ही बना रहना चाहता है। जबकि इतिहास सबक सीखने की चीज है।
भारत का दुर्भाग्य है कि आजादी के 75 साल में जहाँ हर जगह आजादी के जश्न मनाये जाना चाहिए थे वहां कहीं खुदाई के जरिये भग्नावशेष तलाशे जा रहे हैं, उनकी प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है तो कहीं अजानों के मुकाबले हनुमान जी के चालीसा पढ़े जा रहे हैं। चिंता की जा रही है कि दिल्ली में अगला उप राज्यपाल कौन होगा? कायदे से अब दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल जाना चाहिए। उसे केंद्र के हस्तक्षेप से मुक्ति की जरूरत है। लेकिन कुछ चीजें ऐसीं है जो भले ही नेहरू युगीन हों ,उन्हें बदला नहीं जा सकता। नेहरू युगीन व्यवस्थाओं को बदलने से दरअसल सत्ता का काम नहीं चलता। नेहरू युगीन तो छोड़िये मनरेगा जैसी गांधी युगीन योजनाओं के बिना सरकार का काम नहीं चल रहा। कुल मिलाकर सरकार का काम चलना चाहिए, जनता का काम न भी चले तो भी कुछ खास दिक्कत होने वाली नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)