जसविंदर सिंह
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर भाजपा गाल बजा रही है। इसे अपनी जीत की तरह प्रस्तुत कर रही है। सच में यह है कि ये भाजपा, संघ परिवार और मनुवादी ताकतों की जीत है। वर्ण व्यवस्था के वंचित तबकों की वंचना बरकरार है। उनके आगे बढ़ने, बराबरी हासिल करने की भावनाओं के साथ एक बार फिर कुठाराघात हुआ है। मनुवादी भाजपा की जीत का जश्न ऐसा ही है, जैसे कह रही हो कि देखो हमने तुम्हे जान से तो नहीं मारा है, बस हाथ पांव ही तो काटे हैं। कितनी रहम दिल है भाजपा?
भाजपा और संघ परिवार का आरक्षण विरोध कोई नया नहीं हैं। गोलवलकर ने तो अछूतों को मताधिकार देने का भी विरोध किया था। उन्होंने कहा था, इस निचले तबके में संगठन बहुत सीधा और सरल होता है। मांस का एक टुकड़ा फेंकने पर ही हम देखते हैं कि सारे कौए इकट्ठे हो जाते हैं। वे आगे लिखते हैं, सरकार ने कुछ वर्गों को, हरिजन, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग को करार कर ईर्ष्या और अलगाव का रास्ता साफ कर दिया है। उन्हें विशेषाधिकार और सुविधाएं दी गई हैं, ताकि उन पर नियंत्रण रखा जा सके। इसी से समझा जा सकता है कि भाजपा और संघ परिवार को आरक्षण से तकलीफ कोई नई नहीं है, बल्कि जन्मजात है।
भाजपा खुद भले ही गढ़े मुर्दे उखाड़ने के अलावा कोई राजनीति न करती हो। मगर हमारे ऊपर के तर्क पर कह सकती है कि इतनी पुरानी बातों को दोहराने और गढ़े मुर्दे उखाड़ने का क्या फायदा? पता नहीं गुरू जी ने यह बात किस संदर्भ में कही हो। तो क्या गोलवलकर के बाद संघ ने आरक्षण को लेकर अपने दृष्टिकोण में कोई परिवर्तन किया है? नहीं। आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक के सी सुदर्शन ने 6 जून 2006 को नागपुर में स्वयंसेवकों की सभा को संबोधित करते हुए कहा था, आरक्षण हिंदू समाज को बांटने और वोटबैंक की राजनीति के सिवा कुछ नहीं है। इससे देश की प्रतिभाएं प्रभावित होती हैं। आरक्षण की लपटों में पूरा देश बर्बाद हो जाएगा। प्रतिभाओं को कम करके आंका जा रहा है और अपराधी आरक्षण के कोटे का लाभ ले रहे हैं। दीर्घकाल में देश को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।
क्या भाजपा बता सकती है कि सुदर्शन किसको अपराधी कह रहे हैं? यह पिछड़ी और अछूत जातियों के प्रति भाजपा और संघ परिवार की सोच का सच्चा प्रतिबिंब है।
यह याद दिलाना आवश्यक है कि बिहार विधान सभा चुनावों सहित दो ऐसे मौकों पर संघ के वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत भी आरक्षण का विरोध कर भाजपा को असहज स्थिति में डाल चुके हैं। आरक्षण का विरोध करते हुए भाजपा के पितृ पुरुष दीनदयाल उपाध्याय भी जातिवादी छुआछूत वाली वर्ण व्यवस्था का विरोध कर चुके हैं। एकात्म मानवतावाद में उन्होंने जातिवादी व्यवस्था की तुलना मानव शरीर से करते हुए कहा है कि जैसे शरीर के हर अंग को अपना अपना काम करना होता है, तभी शरीर का संचालन होता है, वैसे ही हिंदू समाज के संचालन के लिए भी हर अंग को अपनी अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करना होगा। यदि कोई अंग काम करना बंद कर देगा तो समाज का संतुलन बिगड़ जाएगा।
कहने की जरूरत नहीं है कि उनके अनुसार दलित जातियों के लिए आरक्षण या उनके उत्थान से हिंदू समाज का विकास नहीं होता, बल्कि संतुलन बिगड़ता है। वर्णव्यवस्था के लडख़ड़ाने का खतरा पैदा हो जाता है।
आरक्षण को लेकर भाजपा के निर्णय को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। कांग्रेस के घोषणा पत्र में पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण देने का वादा किया गया था। 15 महीने के सरकार में नगर निकायों और पंचायतों के लिए कांग्रेस ने आरक्षण तो किया। मगर चुनाव करवाने की बजाय अपने राजनीतिक स्वार्थों में उलझ कर चुनावों को टाल दिया गया। कांग्रेस ने नगरीय निकायों में अध्यक्ष और महापौर के प्रत्यक्ष चुनावों को भी अप्रत्यक्ष तरीके से करवाने का कानून बनाया। जिसका भाजपा ने विरोध किया। मगर खरीद फरोख्त के बाद दोबारा सत्ता में आई भाजपा भी उसी रास्ते पर चलने लगी। उसने पंचायत चुनावों की घोषणा की, मगर हाई कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद चुनाव तो रोक दिए गए, मगर बाद में पिछड़े वर्ग का आरक्षण भी घटाकर 14 प्रतिशत कर दिया गया।
वैसे यह पहला मौका नहीं है, जब भाजपा और संघ परिवार की मनुवादी सोच सामने आई हो। इससे पहले अनुसूचित जाति/ जनजाति उत्पीड़न विरोधी कानून को निष्प्रभावी बनाने की कोशिश की गई तो तब भी भाजपा की केंद्र सरकार द्वारा अदालत में मजबूती और मुस्तैदी से पक्ष न रखने के कारण ही हुआ था। जिसके बाद 2 अप्रैल के बंद में देश भर में 11 दलितों की हत्यायें हुई, जिसमें सात मध्यप्रदेश के थे। बाद में संसद में सारे दलों ने एकराय से इस कानून की रक्षा की। जब आजादी के 60 साल बाद आदिवासियों को जल जंगल और जमीन पर हक दिलाने वाला वनाधिकार कानून बना, तो उसके खिलाफ तथाकथित पर्यावरणवादियों की ओर से लगाई गई याचिका में सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासियों के विरोध में एकतरफा फैसला इसलिए दिया कि मोदी सरकार अदालत में प्रस्तुत ही नहीं हुई। अब पिछड़े वर्गो के लिए आरक्षण को लेकर भी शिवराज सरकार के कमजोर तर्क ही जिम्मेदार हैं। प्रश्न यही है कि भाजपा सरकार हमेशा वंचित तबकों के पक्ष में ही इतने कमजोर तर्क क्यों देती है कि जो उन्हें हासिल है,वो भी चला जाए।
अब इस निर्णय में भी सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कह दिया है कि आरक्षण 50 फीसद से ज्यादा नहीं होगा। अब आदिवासियों के लिए 20 और दलित समुदाय के लिए 16 फीसद तो पहले से ही आरक्षण है। इसका तो संवैधानिक प्रावधान है, जिसे कम नहीं किया जा सकता है। इस 36 प्रतिशत के बाद बाकी तो 14 फीसद ही बचता है।
भाजपा कह रही है कि जनसंख्या के अनुसार कुछ निकायों में पिछड़े वर्गो के लिए 30 फीसद तक आरक्षण हो सकता है? मगर कैसे? जब अनुसूचित जाति/ जनजाति समुदायों के आरक्षण को कम नहीं कर सकते हैं, दूसरी ओर 50 फीसद से ज्यादा आरक्षण होगा नहीं तो फिर ज्यादा कहां से आएगा?
वैसे अभी तो भाजपा की समझ में यह भी नहीं आ रहा है कि उसे करना क्या है? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चुनाव करवाने की घोषणा के बाद शिवराज सरकार के मंत्रिमंडल ने आनन फानन में महापौर और अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली से करने का प्रस्ताव राज्यपाल को भेजा था। अब उसे फिर वापस बुला लिया गया है। क्या यह नाक कटा कर गाल की सर्जरी करने जैसा नहीं है?
(लेखक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव हैं।)