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Wednesday, Dec 6, 2023
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भाजपा के लिए बन रहा मुसीबत पिछड़ा वर्ग आरक्षण!

भोपाल(देसराग)। प्रदेश में पिछड़ा आरक्षण की लड़ाई लड़ने का श्रेय लेने में पूरी ताकत लगाने वाली भाजपा को दोहरा नुकसान हो सकता है। इसकी वजह है वादे और दावे के मुताबिक जहां इस वर्ग को पूरा आरक्षण नहीं मिल सका है, वहीं पूर्व से जारी आरक्षण में भी कटौती हो गई है। इसके अलावा भाजपा संगठन और सरकार के पिछड़ा आरक्षण के राग की वजह से अब अन्य वर्ग के लोगों में भी नाराजगी दिखनी शुरू हो गई है। यही वजह है की अब यह मामला भाजपा के लिए राजनीतिक जोखिम के रूप में दिखना शुरू हो गया है।

दरअसल प्रदेश में विधायकों की संख्या हो या मंत्रिमंडल और सरकार के मुखिया का पद सभी में पिछड़ा वर्ग का बोलवाला है। भाजपा के किसी भी नेता का कोई सार्वजनिक कार्यक्रम हो या फिर मीडिया से चर्चा सभी जगह भाजपा नेता कांग्रेस को ओबीसी विरोधी बताने और उसके बयानी हमलों का उत्तर देने के लिए पिछड़ा वर्ग को अवसर देने के आंकड़े परोस देती है, जिसकी वजह से ही गैर पिछड़ा वर्ग में नाराजगी भी बढ़ने लगी है। इसकी वजह से माना जा रहा है कि अब प्रदेश में कहीं भाजपा के सामने बीते विधानसभा चुनाव की ही तरह आरक्षण को लेकर स्थिति न बन जाए। प्रदेश में पिछड़ा वर्ग की सियासत भाजपा के गले की फांस बनती जा रही है।

यह बात अलग है की कांग्रेस लगातार भाजपा पर पिछड़ा वर्ग को नुकसान पहुंचाने के आरोप लगा रही है। पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा पिछड़ा वर्ग आरक्षण रद्द किए जाने से संकट बढ़ा तो अब भाजपा पर पिछड़ा वर्ग को कम आरक्षण देने का आरोप भी विपक्ष लगा रहा है। इस वजह से पिछड़ा वर्ग की सियासत के साये में पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

पिछड़ा वर्ग में भी है नाराजगी
प्रदेश में परिसीमन के बाद भले ही त्रिस्तरीय पंचायतों में सीटों की संख्या बढ़ गई है, लेकिन इसका फायदा होने की जगह पिछड़ा वर्ग को इसका नुकसान हुआ है। इस नुकसान की वजह बने हैं दोनों प्रमुख राजनैतिक दल भाजपा व कांग्रेस। यही नहीं इस मामले में भी पिछड़ा वर्ग कांग्रेस की तुलना में भाजपा से अधिक नाराज है। इसी तरह की नाराजगी की वजह से ही बीते विधानसभा चुनाव में भाजपा को ग्वालियर-चंबल अंचल में बड़ा नुकसान उठाना पड़ा था। पिछले चुनाव में जिला पंचायत सदस्य की 841 सीटें थीं, जो इस बार बढ़कर 875 हो गई हैं, लेकिन पिछड़ा वर्ग आरक्षण में 70 सीटों को नुकसान हुआ है।

सूबे में 2014-15 के चुनाव में पिछड़ा वर्ग के लिए 168 सीटें आरक्षित थीं, जो इस बार कम होकर महज 98 रह गई। इसी तरह सरपंच पद के आरक्षण में भी पिछड़ा वर्ग को नुकसान हुआ है। इसी तरह से जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए आरक्षण की प्रक्रिया 31 मई को भोपाल में होगी।
पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने सुप्रीम कोर्ट से राज्य पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग की पिछड़ा वर्ग के प्रतिवेदन के आधार पर आरक्षण की प्रक्रिया पूरी कराई। रिपोर्ट के मुताबिक जिला पंचायत सदस्य के लिए हुए आरक्षण में अनुसूचित जाति वर्ग के लिए 140, अनुसूचित जनजाति के लिए 231 और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 98 सीटों का आरक्षण किया गया है।

भाजपा का पूरा फोकस
विपक्ष के आरोपों से बचने और पार्टी को सबसे बड़ा पिछड़ा वर्ग हितैषी बताने के लिए ही भाजपा ने निकाय चुनावों में 30 प्रतिशत आरक्षण देने की भी घोषणा कर डाली थी। अब राज्यसभा चुनाव में भी पिछड़ा वर्ग कोटे से कविता पाटीदार को प्रत्याशी भी बनाया है। पार्टी के इन कदमों से सामान्य और अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग नाराज हो रहा है। वर्ष 2018 में अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति वर्ग के दूर हो जाने से भाजपा के हाथों से सत्ता फिसल गई थी। अगले साल 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं। उससे ठीक पहले पिछड़ा वर्ग को खुश करने के फेर में यदि इन वर्गों में फिर से नाराजगी होती है तो सत्ता बचाने की राह में मुश्किलें और बढ़ सकती हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो पिछड़ा वर्ग की विधानसभा में 26 और प्रशासकीय क्षेत्र में 25 प्रतिशत भागीदारी है। पंचायतों में 55 प्रतिशत तक प्रतिनिधित्व मिल चुका है। इसकी वजह है प्रदेश में इस वर्ग का सबसे बड़ा वोट बैंक। राज्य पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग भी इस वर्ग को 35 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश कर चुका है, जबकि कमलनाथ सरकार ने 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया था। प्रदेश विधानसभा की 230 सीटों में से 60 पिछड़ा वर्ग के पास है। उधर, इस मामले में न्यायालय ने आरक्षण की सीमा से बाहर न जाने के निर्देश दे रखे हैं, जिसकी वजह से सरकार के हाथ बंध गए हैं।

इस तरह से आरक्षण का हुआ प्रावधान
अभी राज्य विधान सभा में 32 सीटों पर भाजपा और 28 सीटों पर कांग्रेस के विधायक हैं। इसी तरह से प्रशासनिक क्षेत्र में 25.83 प्रतिशत पद ओबीसी के खाते में हैं। दिग्विजय की कांग्रेस सरकार में ओबीसी को 14 प्रतिशत आरक्षण दिया था, जिसे वर्ष 2019 में कमलनाथ सरकार ने बढ़ाकर 27 प्रतिशत कर दिया था, जिस पर ही विवाद खड़ा हुआ था। नगरीय निकायों की तस्वीर देखें तो वर्ष 2009 में महापौर के अनारक्षित 14 पदों के चुनाव में 25 प्रतिशत ओबीसी को प्रतिनिधित्व मिला। नगर पालिका अध्यक्ष के अनारक्षित 96 पदों के लिए वर्ष 2009 में कराए गए चुनाव में 26 प्रतिशत और 98 पदों के लिए वर्ष 2014 में कराए गए चुनाव में 33 प्रतिशत प्रतिनिधित्व इस वर्ग को मिला है। जिला पंचायत अध्यक्ष के 50 पद पर वर्ष 2009 के चुनाव में 34 प्रतिशत और वर्ष 2014 में 55 प्रतिशत प्रतिनिधित्व मिला। वहीं, जनपद पंचायत अध्यक्ष के 313 पदों के लिए वर्ष 2009 में कराए गए चुनाव में 32 प्रतिशत और वर्ष 2014 में कराए गए चुनाव में 45 प्रतिशत प्रतिनिधित्व पिछड़ा वर्ग को मिला है।

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