सोमेश्वर सिंह
पंचायत चुनाव की बयार है। सरपंची से लेकर जिला पंचायत तक के चुनाव में भर्चे भरे जा रहे हैं। आरक्षित- अनारक्षित, महिला- पुरुष, अनुसूचित जाति- अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग के लिए पंचायत अधिनियम में पद आरक्षित किए गए हैं। पांच हजार साल के इतिहास में जो नहीं हुआ स्वर्गीय राजीव गांधी ने पंचायत राज अधिनियम को संवैधानिक दर्जा देकर वह कर दिया। समाजशास्त्र पर अर्थशास्त्र चढ़ बैठा। पुरुष की जूती, दोयम दर्जे की नागरिक स्त्री को पुरुषों ने सिर माथे पर बैठा लिया। नई नवेली बहुरिया घूंघट से बाहर आ गई। लाली लिपस्टिक लगाकर। पल्लू में। तहसील से कलेक्ट्ररी तक। पर्चा दाखिल करने गाजे बाजे के साथ। नाचती गाती जुलूस की शक्ल में आ रही हैं।
अखबारों से लेकर सोशल मीडिया में उनकी तस्वीरें आ रही है। ऐसा लगता है कि जैसे कोई सौंदर्य प्रतियोगिता चल रही हो। शादी विवाह से ज्यादा ब्यूटी पार्लर में भीड़ भाड़ है। अक्सर शादी के कार्ड में वंशावली चलती है।पौत्र -पौत्री, पुत्र- पुत्री, विनीत- विनयावत, दर्शनाभिलाषी और बाल मनुहार लोग पढ़ते हैं भूल जाते हैं। लेकिन पर्चा दाखिल करने के बाद कुछ इस तरह के नाम छपते हैं। प्रीति- अनीश, हिना-अखिलेश, श्रुति-विवेक। पतिदेव प्रजातंत्र में भी स्त्री के मांग में सिंदूर और पैर में पायल बनकर साथ ही चलते हैं। बुनियादी रूप से ऐसे पति स्त्री के स्वतंत्र सत्ता के खिलाफ होते हैं।
वर्षों पहले मुझे याद है एक नामी गिरामी वकील साहब थे। उनकी पत्नी स्थानीय निकाय में अध्यक्ष हो गई। पूरे पांच साल तक पतिदेव ही पत्नी की अध्यक्षी चलाते रहे। आर्डर शीट में खुद ही आदेश करते। चेक बुक में पत्नी का हस्ताक्षर करते। कानून के जानकार थे। इसीलिए यदि भ्रष्टाचार में जेल जाना पड़े तो खुद बच जाएं और पत्नी जाए। शायद इसीलिए कभी स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि-” यदि स्त्री बाहर नहीं आएगी तो पूरूष दिखेगा कैसे”। पौराणिक काल से ही पुरुष ने स्त्री को सम्मान देकर दासी बना लिया। देव और दानवों ने भी यही किया।
पुरुष के यश, वैभव, सम्मान में खुद को न्योछावर करने वाली नारी को ही वंदनीय कहा जाता है। स्त्री कौन्तेय, राधेय, सौमित्र से ही संतुष्ट हो जाती है। विवाह के बाद भले ही स्त्री को पति के नाम, जाति, कुल, गोत्र के नाम से जाना जाता हो। संतान पैदा करना और उसे पालना ही स्त्री का कर्तव्य है। पराधीनता ही स्त्री का श्रेष्ठ धर्म है। इसीलिए धर्म में पतिव्रता और सतीप्रथा की कहानियां गढ़ी गई हैं। धर्मचारणी ही मानकर स्त्री को गौरीशंकर, सीताराम, राधेश्याम के अलंकरण से विभूषित किया गया है। आमतौर पर आज भी ससुराल में रहने वाली ग्रामीण अंचलों की महिलाओं को उनके मायके के गांव के नाम से पुकारा जाता है। इसी तरह की स्त्री दासता के लिए कन्याओं को पराया धन कहा गया है।
मुझे याद है 1985 के पहले पंचायती राज में महिलाओं का आरक्षण नहीं था। ग्राम पंचायतों में पंचो के द्वारा महिलाएं पंच चुनी जाती थी। तब चुरहट ग्राम पंचायत थी। कुल 15 वार्ड थे। कम्युनिस्ट खेमे से 8 और कांग्रेस खेमें से 7 पंच चुने गए थे। दो महिला पंचों का चुनाव होना था। जिसमें 1 महिला उम्मीदवार मेरी पत्नी मुनेश सिंह थी। अन्य महिला उम्मीदवारों की तुलना में ज्यादा पढ़ी थी, सुंदर थी, युवा थी। शादी वाली साड़ी पहन कर आई थी। लाली लिपस्टिक भी लगा था। उस जमाने के घाघ कांग्रेसी डॉ अब्दुल मुमताज, शीतला निवास सिंह, तेज बहादुर सिंह चिक्खू थे। तब तक स्थानीय राजनीति तीन तिकड़म की तो थी। किंतु मूल्य, सिद्धांत और विचारधारा आधारित थी। लिहाजा मेरी पत्नी एक वोट से चुनाव हार गई।
बावजूद इसके भी महिलाओं ने ज्ञान, विज्ञान, अंतरिक्ष साहित्य, राजनीति, खेल, कला, कौशल के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। नई ऊंचाइयों को छुआ है। योग्यता के मामले में भी पुरुषों से आगे हैं। स्त्री सिर्फ चीफ आफ सैन्य, न्याय, संघ ऑर्गेनाइजेशन से दूर है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)