पुस्तक समीक्षा
कृष्ण बक्षी प्रतिष्ठित प्रगतिशील ग़ज़लकार हैं। उनका रचना संसार बेहद सीधा-सादा और सरल है। रोजमर्रा की ज़िंदगी की जानी पहचानी तस्वीरें, घर-आंगन के बीच के अंतर्द्वन्द और हलकान करती हुई समस्याएं, विडंबनाएं उन्हें उद्वेलित करती हैं और वे उन्हें बहुत ही सरल और सीधे शब्दों में कागज़ पर उतार देने में माहिर हैं। वे’सवालों की दुनिया में गोते लगाते हुये’चलो ढूंढे जवाब अपने’तक का सफ़र बहुत आसानी से कर चुके हैं-पर उनके जो सवाल हैं वे आज भी अनुत्तरित हैं। उन्हें उन जवाबों की दरकार है जो आपसी सद्भाव, सौमनस्य और अंतरंगता से लबरेज़ हों। भेदभाव, पाखंड, अशिक्षा, निर्धनता, कुटिलता से रचित इस संसार से वे मुक्तिकामी आकांक्षा रखते हैं। सच की अंदरूनी परतों के बीच इस खौफ़नाक समय में वे न केवल दो-दो हाथ करते हैं प्रत्युत अपनी अंतर्व्यथा से सामाजिक बदलाव की कामना भी करते हैं।
अभी-अभी बोधि प्रकाशन से उनका ताज़तम ग़ज़ल संग्रह “चलो ढूंढें जवाब” प्रकाशित हुआ है। इन ग़ज़लों में वे न केवल युवा पीढ़ी के प्रति चिंतित हैं बल्कि उनके रोजगार के प्रति भी उनका संवेदनशील हॄदय हिलोरें ले रहा है-
अभी भी घूमती फिरती है सड़कों पर जवां पीढ़ी
मग़र संसद तलक होती हैं
बस रोज़गार की बातें
इस शे’र में उनका इशारा बिल्कुल साफ़ है कि बातों से सिर्फ़ काम नहीं होने वाला है।हमारे नुमाइंदे परिणाम मूलक नीतियां बनाएं। वे सिर्फ़ यहीँ नहीं रुकते उनके निशाने पर मीडिया भी है जो तथ्यपरक समाचारों की प्रायः अनदेखी करते हैं। सच की अंदरूनी परतों के नीचे पसरे हुए झूठ को परोसने का काम करते हैं। समाचार पत्रों पर तंज की बानगी देखिये-
ख़बर आती नहीं हम तक
कहीं से भी सही कोई
वो चाहे दूर दर्शन हो
या फिर अखबार की बातें.
बक्षी जी संवेदना के कवि हैं। वे प्राप्त आज़ादी के संघर्ष को कुछ इस तरह बयां करते हैं-
मुद्दतों यों बैठकर रातें गुज़ारी हैं
तब कहीं किरणें ये धरती पर उतारी हैं
और इन प्रकाशमयी किरणों को अंधेरे में तब्दील करने की कोशिशें जो इन दिनों हो रही हैं वे न केवल उनके अंतर्मन को व्यथित करती हैं बल्कि परेशान भी करती हैं। वे नन्हें मुन्ने बिलखते हुए बचपन से भी दुःखी हैं-
अभी तो भूख से रोता बिलखता सा है ये बचपन
मेरा अभियान होगा ख़त्म
जब इनको हंसा दूंगा
यहाँ ग़ज़लकार का जज़्बा और ज़ुनून दोनों ही देखने लायक हैं। ग़ज़लकार का हौसला यहाँ हमें न केवल आश्वस्ति कारक लगता है बल्कि एक संबल भी देता है। बक्षी जी भूख, गरीबी, बचपन और बच्चों के प्रति एक सहिष्णु
और संवेदनशील हॄदय रखते हुए अपने उस अभियान में सन्नद्ध हैं जहाँ समतामूलक समाज की स्थापना हो सके।
कृष्ण बक्षी के इस ग़ज़ल संग्रह के विविध आयाम हैं। वे अपने कथ्य को शे’र के माध्यम से कुछ इस तरह से साधते हैं कि अभिव्यक्ति के धरातल पर उसका कोई सानी नहीं होता। बानगी देखिये-
दर्द अक्सर जब मुझे
पहचान लेता है
बिन सबूतों के ही दुश्मन
मान लेता है
बात उठते ही वो मेरे
इन सवालों की
पांव से सर तक
वो चादर तान लेता है।
इस संग्रह की सभी ग़ज़लों की भाषा सीधी और सरल है।संग्रह की सभी ग़ज़लें श्रेष्ठ बन पड़ी हैं। वे अपने शिल्प और कथ्य में पूरी तरह मुकम्मल हैं। समय को खंगालकर सवाल बना कर छोड़ देने और फिर उन सवालों से रु-ब-रू होकर उनके जवाब ढूंढने में ग़ज़लकार की बेचैनी हमें इन ग़ज़लों में दिखाई देती है। वे एक लंबे अरसे से व्यथित हैं उनका संपूर्ण सृजन सामाजिक बदलाव की आकांक्षा रखता है। संग्रह पठनीयता की मांग रखता है।
समीक्षक:अनिल अग्निहोत्री
चलो ढूंढें जवाब अपने
(ग़ज़ल संग्रह)
लेखक-कृष्ण बक्षी
बोधि प्रकाशन
मूल्य-150 रुपए