राकेश अचल
जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाने के मौजूदा सरकार के ऐतिहासिक निर्णय के तीन साल पूरे हो गए लेकिन अपने वादे के मुताबिक़ इन तीन साल में सरकार ने यहां न लोकतंत्र को बहाल किया और न यहां के लोगों के जीवन को खुशहाल बनाया। इस तरह ये तीन साल कश्मीर के साथ छल के रूप में दर्ज किये जा रहे हैं। आज आप जम्मू-कश्मीर के विखंडन पर संवेदना और सरकार की वादाखिलाफी के खिलाफ खेद व्यक्त कर सकते हैं। इससे ज्यादा करने की आपको इजाजत नहीं है।
जम्मू-कश्मीर एक जमाने में भारत का मुकुटमणि कहा जाता था। केसर की धरती में आतंक की भी खेती आजादी के बाद से लगातार होती रही, लेकिन यहां न राज्य की अस्मिता पर कभी कोई चोट पहुंची और न कभी हमेशा के लिए लोकतंत्र को समाप्त किया गया। कश्मीर में यदाकदा राष्ट्रपति शासन जरूर लगाया गया लेकिन तय वक्त पर चुनाव भी कराये गए। मेरी याददाश्त कहती है की इस विशेष राज्य में कोई 8 मर्तबा राष्ट्रपति शासन लगाया गया लेकिन हर बार राष्ट्रपति शासन के बाद यहां विधानसभा के चुनाव भी हुए।
जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने का ख्वाब भाजपा अपने जन्म से ही देखती आ रही थी। ये ख्वाब जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी मिलकर देखा, लेकिन दुर्भाग्य से ये ख्वाब आजादी के सात दशक बाद 5 अगस्त 2019 को पूरा हो पाया। भाजपा का सपना तो पूरा हो गया किन्तु न सिर्फ राज्य टूट गया। बल्कि स्थानीय जनता का सपना भी टूट गया। बीते तीन साल में केंद्र सरकार राज्य के लोगों को उनका लोकतान्त्रिक अधिकार वापस देने के अपने वादे से लगातार पीछे हट रही है। आजादी के अमृत वर्ष में भी उन्हें उनका अधिकार नहीं मिला।
देश में पुराने राज्यों का विभाजन कर पहले भी नए राज्य बने हैं, इसलिए जम्मू-कश्मीर के विखंडन को आप नया इतिहास नहीं कह सकते। हाँ नया इतिहास ये जरूर है कि देश के एक विशेष राज्य के तीन टुकड़े कर उसकी पहचान को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। अब सवाल ये है कि केंद्र कश्मीर में लोकतंत्र बहाली से क्यों पीछे हट रहा है? पिछले तीन साल में केंद्र ने कथित रूप से कश्मीर की तस्वीर बदल दी है तो फिर लोकतंत्र की बहाली में हिचक क्यों है? जाहिर सी बात है कि केंद्र का राज्य विखंडन का प्रयोग नाकाम रहा है।
जम्मू-कश्मीर के विखण्डन के बाद न तो राज्य में आतंकवाद कम हुआ और न ही यहां की जनता का आत्म विश्वास लौटा। कश्मीरी पंडितों की वापसी के मामले में भी केंद्र सरकार पूरी तरह नाकाम रही है। इसी साल कश्मीरी पंडित राहुल बट और रजनी बाला की हत्या के बाद कश्मीरी पंडितों में रोष है। कश्मीरी पंडितों को अपना बड़ा मुद्दा बनाने वाली सरकार को लगातार आठ साल हो चुके हैं लेकिन कश्मीर पंडितों के लिए हालात में कोई बदलाव नहीं है। वे इस वक्त भी डरे हुए हैं और घाटी छोड़कर निकलना चाहते हैं। हाल की हत्याओं ने उनके डर को और बढ़ा दिया है। राहुल बट की हत्या के बाद बड़ी संख्या में कश्मीरी हिंदुओं ने सड़क पर उतरकर विरोध प्रदर्शन किया और उन्हें सुरक्षित जगहों पर ले जाने की मांग की थी।
कश्मीर की तकदीर में पीर भरने वाली सरकार दरअसल मुस्लिम बहुल इलाके में हिन्दुओं को बसा कर यहां की ‘डेमोग्राफी’ को बदलना चाहती है। मोदी सरकार ने अगस्त 2019 में यहां की सीमित स्वायत्ता को समाप्त करने और अक्टूबर 2020 में नए भूमि कानून लाने संबंधी फैसले लिए तो इन आशंकाओं को और मजबूती मिली। इन दोनों फैसलों से स्थानीय लोगों में चिंता पैदा हुई। केंद्र ने ‘दि कश्मीर फ़ाइल’ बनाकर देश और दुनिया की आंखों में एक नए तरह की धूल झोंकने की कोशिश की लेकिन वो भी नाकाम हो गयी। विखंडित राज्य का निशान जरूर बदल गया किन्तु तकदीर और तस्वीर नहीं बदली। अब लगता ही नहीं है कि कश्मीर इस देश का हिस्सा है भी या नहीं?
भाजपा के साथ सरकार बना चुकी अतीत के जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ़्ती कहती हैं कि “जम्मू-कश्मीर विकास सूचकांक में फिसल कर नीचे आ गया है। बेरोजगारी और महंगाई चरम पर है। सामान्य स्थिति का दिखावा ‘सबका साथ, सबका विकास’ जितना ही वास्तविक है।” हमारे हमपेशा वरिष्ठ पत्रकार संजय कपूर भी मानते हैं कि राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया ठप हो गई है। उन्होंने कहा कि “कश्मीर में कोई वादा पूरा नहीं किया गया है। राजनीतिक प्रक्रिया से समझौता किया गया है और अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण के तहत भारत सरकार और कश्मीर के बीच संवैधानिक व्यवस्था को देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जांच के अधीन नहीं लाया गया।”
दुर्भाग्य की बात है कि इस मसले पर देश के विपक्षी दल और संसद दोनों मौन हैं। विपक्षी दल केंद्र द्वारा छोड़े गए ‘ईडी के प्रेत’ से मुक्ति के लिए परेशान हैं। वे भूल गए हैं कि देश में जम्मू-कश्मीर की जनता से किये गए वादे भी एक मुद्दा हैं। ये केंद्र की कामयाबी है कि उसने विपक्ष को लगभग लंगड़ा-लूला बना दिया है। पूरा विपक्ष अपना अस्तित्व बचाने में लगा है। किसी को कश्मीर की फ़िक्र नहीं है।
कश्मीर के साथ विशेष व्यवहार ही उसकी मुसीबत बना है। भाजपा को कश्मीर में उसका अपना झंडा फूटी आंख नहीं सुहाता था। भाजपा को बीते चालीस साल में कश्मीर की जनता ने अपने यहां पांव रखने की जगह नहीं दी,ये भी भाजपा नेतृत्व की कुंठा का एक बड़ा कारण था।
जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र बहाली कब होगी? ये तो भगवान भी नहीं जानते। प्रधानमंत्री, केंद्रीय गृहमंत्री और संघ प्रमुख जानते हों तो जानते हों। केंद्र ने विशेष राज्य के विशेष अधिकार भले ही छीन कर अपना कथित पुरषार्थ दिखा लिया लेकिन यही पुरषार्थ अब उसकी कायरता को प्रदर्शित कर रहा है। इस मुद्दे पर भले ही देश की संसद मौन हो, मुख्यधारा का मीडिया चुप्पी साधे हो लेकिन जम्मू-कश्मीर की अपमानित जनता कुछ नहीं भूली है। उसे जब भी मौक़ा मिलेगा वो अपनी भूल सुधार जरूर करेगी, क्योंकि केन्द्र ने जान-बूझकर यानि इरादतन जम्मू-कश्मीर को देश की मुख्यधारा से काट दिया है। ऐसा तो तब भी नहीं हुआ था जब वहां संविधान की धारा 370 लागू थी।
ईश्वर से प्रार्थना है कि जम्मू-कश्मीर को उसका लोकतान्त्रिक अधिकार, वैभव, पहचान जल्द से जल्द वापस मिले। वहां भी 11 अगस्त से 15 अगस्त तक घर-घर तिरंगा फहराया जाये, और बेहतर हो कि उसे केंद्र शासित प्रदेश से मुक्ति देकर एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा लौटाया जाये।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)