बादल सरोज
फिल्म नायक में अमरीश पुरी ने अनिल कपूर को कम से कम एक दिन का मुख्यमंत्री तो बनाया था – इधर वाले ने महांकाल को महज एक मीटिंग का मुख्यमंत्री बनाकर ही काम निकालना चाहा।
उज्जैन में हुई मध्यप्रदेश के मंत्रिमंडल (कैबिनेट) की मीटिंग में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर महाकाल की तस्वीर विराजमान करके शिवराज सिंह चौहान ने भले अपने आकाओं के सामने खुद को योगी से भी बड़ा कट्टर हिन्दू साबित करने और अपने मात-पिता संगठन आरएसएस के भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान को ध्वस्त करने का एजेंडा आगे बढ़ाकर बंधुओं की निगाहों में ऊपर चढ़ने का प्रयास किया हो मगर आस्थावान लोगों को भी यह महाकाल का अपमान ज्यादा लगा है।
इन दिनों शिवराज सरकार घपलों, घोटालों, भ्रष्टाचारों, बेईमानियों और नाकामियों के बीसियों हिमालयों के बोझ के नीचे दबी हुई है। अब तो अनेक भाजपाई भी मानने लगे हैं कि इससे ज्यादा भ्रष्ट और अकर्मण्य सरकार मध्यप्रदेश में पहले कभी नहीं रही।
ऐसा कोई नया बाँध नहीं है जो इस बारिश में रिसा या टूटा न हो, ऐसी कोई सड़क नहीं है जो अपने बनने के बाद की पहली ही बारिश में टूटी और उखड़ी न हो।
राशन प्रणाली हो या मध्यान्ह भोजन, आंगनबाड़ी का पोषणाहार हो या मध्यान्ह भोजन, स्कूलों में बंटने वाली ड्रेस, किताबें हो या साइकिलें, अस्पतालों में दी जाने वाली दवाइयां हों या वृद्धों-विधवाओं को दी जाने वाली पेंशन; ऐसा कोई बचा नहीं जिसको इस सरकार ने ठगा नहीं।
क़ानून व्यवस्था, गरीबों पर अत्याचार और छोटी बच्चियों सहित महिलाओं के साथ बलात्कार के अपराधों में तो देश में नंबर वन आने की होड़ सी ही लगी हुई है।
इन सब कुकर्मों को छुपाने के लिए की जाने वाली कैबिनेट मीटिंग की अध्यक्षता के लिए महाकाल को एक मीटिंग का मुख्यमंत्री बनाना अरक्षणीय की रक्षा के लिए “ईश्वर” तक की आड़ लेने की धोखाधड़ी के सिवाय कुछ नहीं है। जाहिर है धार्मिक आधार पर सोचने वालों के लिए भी यह एक अपराध है,पाप है। मारीच के मुंह से निकला राम है, शैतान के मुंह से आयतों का पाठ है।
इधर महांकाल से कैबिनेट की अध्यक्षता कराई जा रही थी उधर मंदसौर में “स्त्रियों को देह व्यापार करने वाली” बताने वाले एक कथावाचक मजमेबाज की प्रवचनलीला में भीड़ जुटाने और उसे संभालने के लिए आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की ड्यूटी लगाने के आदेश जारी किये जा रहे थे।
भारतीय संविधान और संसदीय लोकतंत्र की विधिमान्य परम्परा के हिसाब से यह दोनों ही करतूतें बड़े वाले अपराध हैं। हालांकि जो सरकार ही चुनावों में दिए गए जनादेश को थैलियों के जरिये उलट कर कराये गए दलबदल से बनी हो, जिसका जन्म ही संसदीय लोकतंत्र के निषेध और मखौल से हुआ हो, जिसका रिमोट एक ऐसे संगठन के हाथ में हो जिसका संविधान और प्रजातंत्र, समता समानता बहुलता और धर्मनिरपेक्षता में यकीन तक न हो उससे संविधानसम्मत आचरण की उम्मीद करना ही व्यर्थ है।
मगर
उज्जैन में जो हुआ वह कुछ ज्यादा ही है; दुनिया में प्रचलित सभी धर्मों सहित बीसियों देशज धर्मों, सैकड़ों पंथों, हजारों रीति रिवाजों और 33 करोड़ देवी देवताओं, गुरुओं, औलियाओं, फकीरों और बाबाओं वाले भारत में अगर यह बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जाएगी।
क्योंकि
इतिहास बताता है कि धर्म का जब जब, जहां जहां राजनीति के साथ घालमेल किया गया है न धर्म सलामत बचा है न देश।
(लेखक लोकजतन के संपादक हैं।)