2.5 C
New York
Thursday, Dec 7, 2023
DesRag
विचार

सचमुच देश बदल रहा है

नज़रिया

सोमेश्वर सिंह
हाड़कपाऊ ठंड में जैसे-जैसे शीत लहर बढ़ रही है वैसे-वैसे शहर में दानदाता भी बढ़ रहे हैं। मोटी चर्बी वाले दानवीर कृषकाय गरीबों को समारोह पूर्वक कंबल वितरित कर रहे हैं। मुस्तंड दानवीर आंखें तरेरकर फोटोग्राफर के कैमरे को देख रहा है। उसकी आंखों से आग बरस रही है। और गरीब आदमी की बेबस लाचार आंखें जमीन की तरफ गड़ी जा रही है। आए दिन इस तरह के समारोह का अद्भुत दृश्य का समाचार अखबारों में पढ़ने को मिलता है। इसी तरह का कुछ दृश्य किसी बड़े आदमी के जन्मदिन पर अस्पतालों में देखने को मिलता है। दान वीरों की भीड़ मरीजों को फल वितरित करती है। एक केले को एक दर्जन दानदाताओं के हाथ थामे रहते हैं। ऐसा लगता है कि यदि केला निर्जीव ना होता तो चीत्कार मारने लगता।

भक्ति काल में संत रहीम भी दानवीर थे। उनके दानवीरता से प्रभावित होकर तुलसीदास ने रहीम से पूछा-
“ऐसी देनी दे जू, कित सीखे हो सैन ।
ज्यों ज्यों कर ऊंचे करो, त्यों त्यों नीचे नैन।।”

अर्थात रहीम ऐसे दान देना तुमने कहां से सीखा। जैसे-जैसे दान के लिए हांथ ऊपर उठाते हो अपनी आंखें नीचे कर लेते हो। रहीम ने जवाब दिया-
“देनहार कोऊ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नहीं।।”

अर्थात हम कहां किसी को देते हैं। देने वाला तो दूसरा ही है, जो दिन-रात भेजता रहता है। इन हाथों से दिलाने के लिए। लोगों को व्यर्थ ही भ्रम हो गया है कि रहीम दान देता है। मेरे नेत्र इसीलिए झुके रहते हैं कि मांगने वाले को भान ना हो कि उसे कौन दे रहा है। उसे अपने दीनता का एहसास ना हो।

गरीब, भिखारी दानदाताओं की संजीवनी हैं। दानी की पहचान तब तक है जब तक भिखारी हैं। इसीलिए सरकारें अमीरों को ज्यादा अमीर और गरीबों को गरीब बना रही है। अनाथालय के लिए अनाथ होना जरूरी है। लड़कियां घर से नहीं भागेंगी, महिलाएं पतित नहीं होंगी तो महिला आश्रम भी नहीं चलेंगे। यतीम बच्चों का पैदा होना भी जरूरी है। नहीं तो बालगृह बंद हो जाएंगे। इन संस्थाओं को अमीर लोग दान देते हैं। सरकार अनुदान देती है। अमीरों को टैक्स में छूट मिल जाती है। सरकार को चंदा मिल जाता है। टैक्स चोरी से ही धर्मार्थ संस्थाएं तथा ट्रस्ट चलते हैं। इसीलिए सरकारें भी अमीरों की लूट पर अंकुश नहीं लगाती। मिलावट खोरी नहीं रुकती। कीमतें महंगी करने में उन्हें पूरी छूट है। आम आदमी पेट काटकर बचत करता है। पैसा बैंक में जमा कर देता है। और उस पैसे को अमीरों को लूटने की पूरी आजादी दे दी जाती है। अमीरों के लाखों रुपए का कर्ज सरकार बट्टा खाता में डाल कर माफ कर देती है। कर्जदार गरीब परिवार के घर खेत की कुर्की और नीलामी कर दी जाती है।

पाखंड, अंधविश्वास, धर्मांधता, जातीय उन्माद इस लुटेरी व्यवस्था का कवच है। सरकार कानून पर बना देती है। कानून का पालन करना और कराना नौकरशाही का काम है नौकरशाही सरकारी नियंत्रण में है। यदि कानून का पालन किया गया होता तो देश की आज यह दुर्गति नहीं होती। कहने के लिए भारत का संविधान तो 1950 में ही बन गया था। सुचारू रूप से प्रजातांत्रिक व्यवस्था को संचालित करने के लिए संविधान में कई अनुच्छेद है। नागरिकों के मौलिक अधिकार हैं। संवैधानिक संस्थाएं बनाई गई हैं। संविधान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाए जाने पर जोर दिया गया है। लेकिन सारा काम अवैज्ञानिक ढंग से चल रहा है। संवैधानिक संस्थाओं को टीथलेस टाइगर बना दिया गया। उनकी स्वतंत्रता नहीं रह गई है।

तुलसी बाबा के रामराज्य की परिकल्पना को जनकल्याणकारी राज्य में बदल दिया गया है। सभी दल करतल ध्वनि से रामचरितमानस की चौपाई-
“परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।।”

का जाप कर रहे हैं। सचमुच देश बदल रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Related posts

तिकड़म और कांईयांपन की विषाक्त राजनीति

desrag

सेना के अग्निपथ के अतिरिक्त खतरों के तीन आयाम

desrag

न्यायपालिका के अपशकुनी बोल

desrag

Leave a Comment