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Saturday, Dec 2, 2023
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विचार

संत पुरुष महाराजा मार्तंड सिंह

नजरिया

सोमेश्वर सिंह
एक जमाना था जब राजनीति मूल्यगत हुआ करती थी, आजकल तो आत्मगत हो गई है। महाभारत कालीन कुरुक्षेत्र में शंखनाद के बाद ही युद्ध प्रारंभ होता था। सूर्यास्त के साथ ही युद्ध समाप्त होता। दोनों पक्ष के लहुलुहान महारथी अपने अपने शिविर में विश्राम करते। कौरव और पांडव पक्ष के महारथी रात्रि में एक दूसरे के शिविर में पहुंचते, संवाद करते, हालचाल पूछते, संवेदना व्यक्त करते, नीति-अनीति, धर्म-अधर्म की चर्चाएं होती। और जब कोई महारथी युद्ध मे वीरगति को प्राप्त होता तो उसके अंत्येष्टि में वे योद्धा भी शामिल हुआ करते थे, जिनके अस्त्रों से वह महारथी वीरगति प्राप्त करता । विश्व इतिहास में युद्ध और शांति की इस तरह की दूसरी नजीर देखने को नहीं मिलेगी। ऐसा नहीं है कि तब घात- प्रतिघात और छल- प्रपंच नहीं होता था, तब भी होता था। परंतु उसका उद्देश्य मानव समाज की रक्षा और उत्थान था।

1977 के लोकसभा चुनाव में रीवा संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी महाराजा मार्तंड सिंह के खिलाफ चुनाव मैदान में जनता पार्टी के यमुना प्रसाद शास्त्री थे, चुनाव प्रचार के लिए शास्त्री जी महाराजा साहब के पास आर्थिक मदद लेने गए थे और महाराजा साहब ने उन्हें एक जीप दे दी। महाराजा साहब चुनाव हार गए। हारने के बाद महाराजा साहब की पद्मधर पार्क में जनसभा हुई। महाराजा साहब पहली मर्तबा बिना किसी स्क्रिप्ट के बोले। जिन मतदाताओं ने उन्हें चुनाव हरा दिया था वही रो रहे थे। “मूक होय वाचाल, पंगु चढ़ई गिरिवर बदन” तुलसीदास की यह चौपाई महाराजा साहब और शास्त्री जी पर हुबहू चरितार्थ होती है। क्योंकि महाराजा मार्तंड सिंह संसद में कभी नहीं बोले इसलिए उन्हें ‘गूंगा’ कहा जाता था। दूसरी तरफ यमुना प्रसाद शास्त्री नेत्रहीन थे। इस संदर्भ में मुझे एक वाकया याद आ रहा है। रीवा शहर के शायद सब्जी मंडी में भीषण आगजनी हुई, छोटे दुकानदारों की दुकानें खाक हो गई, महाराजा साहब ने दिल खोलकर पीड़ित लोगों की आर्थिक मदद की, शास्त्री जी स्थानीय सांसद होने के नाते घटनास्थल पर गए और उन्होंने कहा बहुत दुखद दृश्य है। किसी की पीड़ा देखने और बोलने की चीज नहीं उसे तो महसूस ही किया जा सकता है।

स्वर्गीय महाराजा मार्तंड सिंह की आज जयंती है, वे विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्ति तो थे ही साथ ही संत पुरुष भी थे।स्वर्गीय अर्जुन सिंह जी के राजनीतिक जीवन में महाराजा साहब का अतुलनीय योगदान है ।अर्जुन सिंह 1967 में चुरहट विधानसभा क्षेत्र से स्वर्गीय चंद्र प्रताप तिवारी से चुनाव हार चुके थे ।मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा को अर्जुन सिंह की विधानसभा में अनुपस्थिति खल रही थी। लिहाजा महाराजा साहब के सहयोग से उमरिया से निर्वाचित कांग्रेसी विधायक रणविजय प्रताप सिंह ने इस्तीफा दे दिया। उपचुनाव हुआ जिसमें अर्जुन सिंह उप चुनाव जीते। संभवत: भारतीय राजनीति के संसदीय इतिहास में यह विरलतम उदाहरण था। बाद में जब ग्वालियर महारानी विजयाराजे सिंधिया के पहल पर कांग्रेस के निर्वाचित 36 विधायकों ने दल बदल कर के द्वारिका प्रसाद मिश्रा की सरकार को गिरा दिया। मध्यप्रदेश में गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में संविद सरकार बनी। महारानी ग्वालियर के दबाव में रीवा महाराजा अर्जुन सिंह को संविद सरकार में शामिल होने की सलाह दी, तब अर्जुन सिंह ने बड़े विनम्रता पूर्वक महाराजा साहब से कहा मुझ पर आपका बहुत उपकार है, मैं विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दूंगा, परंतु कांग्रेस पार्टी के साथ विश्वासघात नहीं करूंगा।

किसी जमाने में पाखंड, अनीति और अधर्म को पाप समझा जाता था। मौजूदा राजनीति में वही पुण्य हो गया है। रावण नीति, राजनीति तथा शक्ति का महापंडित था। राम ने उसका वध किया। रावण मृत्यु शैया पर था। तब राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा की जाओ महापंडित रावण से कुछ ज्ञान ग्रहण कर लो। लक्ष्मण गए और रावण के सिर के पास खड़े हो गए, रावण कुछ नहीं बोला। लक्ष्मण राम के पास वापस लौटे तब राम ने कहा यदि ज्ञान प्राप्त करना हो तो चरण के पास खड़े होना चाहिए। लक्ष्मण ने वैसा ही किया तब रावण ने उन्हें ज्ञान देते हुए कहा -शुभ कार्य में देरी नहीं करनी चाहिए और अशुभ कार्य को जितना टाल सको टाल देना चाहिए। मैंने राम को पहचाना नहीं यह मेरी भूल थी। किसी भी शत्रु को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए। अंत में ज्ञान की बात रावण ने बताते हुए कहा ,जीवन का कोई राज हो तो उसे किसी को भी ना बताएं ,मैंने अपने मृत्यु का राज विभीषण को बता दिया था। और वही मेरी मृत्यु का कारण बना।

महाभारत कालीन गंगा पुत्र भीष्म पितामह की कथा सभी को मालूम है। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने उन्हें सहस्त्रों बाण से भेदित कर दिया। वे शरशैया में लेटे हुए 58 दिनों तक जीवित रहे तथा सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते रहे। क्योंकि मान्यता थी की सूर्य के उत्तरायण होने पर यदि प्राण त्यागा जाए तो आत्मा को सद्गति प्राप्त होती है। युद्धविराम के बाद कृष्ण सहित सभी पांडव और उनके परिजन लगातार 58 दिनों तक युद्ध भूमि में भीष्म पितामह के शरशैया के पास जाते,अपनी अपनी संवेदना,ग्लानि व्यक्त करते। भीष्म सभी को ढाढस बंधाते रहे, उन्हें ज्ञान नीति का उपदेश देते। उन्होंने अपनी मृत्यु के लिए स्वत: को उत्तरदाई बताया। किसी अन्य को आक्षेपित नहीं किया।
माना कि बदलते वक्त के साथ समाज ने बहुत प्रगति करली, विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में देश समृद्ध हो गया। हम विश्व गुरु और विश्व नेता होने का दंभ पाल रहे हैं ,परंतु हमारी अंतश्चेतना, संवेदनाएं मर रही हैं। स्वार्थपरक राजनीति ने हमें इस कदर घेर लिया है कि हम किसी के संताप से दुखी नहीं होते, किसी का आर्तनाद हमें सुनाई नहीं देता, क्योंकि हम निष्ठुर हो गए हैं। यह दोष किसी एक व्यक्ति, समाज का नहीं पूरे सिस्टम का है। किसी से संबंध बनाना और उन संबंधों को जीना दोनों अलग बात है। एक निश्छल, निर्विकार, संत पुरुष स्वर्गीय महाराजा मार्तंड सिंह को उनकी जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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