विवेक श्रीवास्तव
कांग्रेस नेता राहुल गांधी का ट्रक में बैठकर लंबा सफर कुछ लोगों को चकित कर सकता है तो कुछ लोगों का मीनमेख निकालना और आलोचना करने का जरिया भी बन सकता है। राहुल गांधी की रथ यात्रा ऐसे समय हुई जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ऑस्ट्रेलिया मेंं स्वागत सत्कार किया जा रहा (कराया जा रहा)था। राहुल गांधी की साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी पदयात्रा को गोदी मीडिया में उतना कवरेज नहीं मिला जो एक राजनेता के तौर पर राहुल गांधी को दिया जाना चाहिए था। हां मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए के उन्हें बदनाम करने की कोशिश जरूर की गई। कर्नाटक चुनाव में राहुल गांधी का बस में सफर या फिर डिलीवरी ब्वॉय के साथ स्कूटी के उनके सफर ने पूरे देश का ध्यान खींचा है। आम आदमी से जुड़ने और उसकी जिंदगी की उथल-पुथल को समझने की राहुल गांधी की इन कोशिशों के नतीजे कांग्रेस पार्टी को कितना सियासी नफा नुकसान पहुंचाएंगे, विषय यह नहीं है। ऐसे समय में जब राजनीति के मायने ही बदल गए हैं, राहुल गांधी की आम आदमी से नज़दीकियां एक उम्मीद तो जगाती हैं। खास तौर पर तब जबकि नेता की छवि पूरी तरह बदल चुकी है और राजनीतिक आयोजनों में भाड़े की भीड़ का सहारा लिया जा रहा है। सत्ताधारी दल तो इस तरह के आयोजनों को इवेंट बनाने में पूरे संसाधन झोंक देते हैं।
ट्रक ड्राइवर हों, क्लीनर हों या बस में सफर करने वाला मध्यमवर्गीय, राजनीतिक दलों की कार्यशैली से उकता चुका है। सच तो यह है कि उसका राजनीतिक दलों से भरोसा ही उठ चुका है। राजनीति में अरसे बाद ऐसा देखने को मिल रहा है जब किसी राजनीतिक दल का नेता लोगों से मिलने उसके दरवाजे तक पहुंच रहा है। इसे राजनीतिक प्रयोग कहा जा सकता है लेकिन यह प्रयोग नहीं बल्कि यह जरूरत है नेता और जनता के बीच दूरी को कम करने की। सियासी परिदृश्य में एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशी जोरों पर खुद को वैश्विक नेता साबित करने की देशवासियों को भ्रमित करने की कोशिशों में जुटे हैं। तो देश में ही मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की ट्रक यात्रा भारत और न्यू इंडिया के फर्क को भी साफ कर देता है। राजनीति के जिस सफर पर पर राहुल गांधी चल पड़े हैं उस सफर पर दूसरे राजनीतिक दल भी चलेंगे? योजनाएं और नीतियां आम आदमी के लिए बनाई जाती हैं लेकिन यही तबका हाशिये पर है।